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था सतत अटकाव।
 
 
गिर रहा निस्तेज गोलक
 
जलधि में असहाय,
 
घन-पटल में डूबता था
 
किरण का समुदाय।
 
 
कर्म का अवसाद दिन से
 
कर रहा छल-छंद,
 
मधुकरी का सुरस-
 
संचय हो चला अब बंद।
 
 
उठ रही थी कालिमा
 
धूसर क्षितिज से दीन,
 
भेंटता अंतिम अरूण
 
आलोक-वैभव-हीन।
 
 
यह दरिद्र-मिलन रहा
 
रच एक करूणा लोक,
 
शोक भर निर्जन निलय से
 
बिछुडते थे कोक।
 
 
मनु अभी तक मनन करते
 
थे लगाये ध्यान,
 
काम के संदेश से ही
 
भर रहे थे कान।
 
 
इधर गृह में आ जुटे थे
 
उपकरण अधिकार,
 
शस्य, पशु या धान्य
 
का होने लगा संचार।
 
 
नई इच्छा खींच लाती,
 
अतिथि का संकेत-
 
चल रहा था सरल-शासन
 
युक्त-सुरूचि-समेत।
 
 
देखते थे अग्निशाला
 
से कुतुहल-युक्त,
 
मनु चमत्कृत निज नियति
 
का खेल बंधन-मुक्त।
 
 
 
 
एका माया आ रहा था
पशु अतिथि के साथ,
हो रहा था मोह
करुणा से सजीव सनाथ।
चपल कोमलकर रहा
फिरसतत पशु के अंग,
स्नेह से करता चमर-
उदग्रीव हो वह संग।
कभी पुलकित रोमराजी
से शरीर उछाल,
भाँवरों से निज बनाता
अतिथि बदन निहार,
सकल संचित-स्नेह
देता दृष्टि-पथ से ढार।
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