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− | + | रंग खुलता जाये है, जितना कि उड़ता जाये है | |
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20:36, 18 मार्च 2010 के समय का अवतरण
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाये है
मैं उसे देखूँ, भला कब मुझसे देखा जाये है
हाथ धो दिल से यही गर्मी गर अंदेशे में है
आबगीना<ref>शीशे का पात्र</ref> तुंदी-ए-सहबा<ref>शराब की गर्मी</ref> से पिघला जाये है
ग़ैर को या रब ! वो क्यों कर मना-ए-गुस्ताख़ी करे
गर हया भी उसको आती है, तो शर्मा जाये है
शौक़ को ये लत, कि हरदम नाला ख़ींचे जाइए<ref>रोते रहना</ref>
दिल कि वो हालत, कि दम लेने से घबरा जाये है
दूर चश्म-ए-बद<ref>बुरी नजर</ref> ! तेरी बज़्म-ए-तरब<ref>संगीत की महफिल</ref> से वाह, वाह
नग़्मा हो जाता है वां गर नाला मेरा जाये है
गर्चे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल<ref>अंजान रहने का तरीका</ref>, पर्दादार-ए-राज़-ए-इश्क़<ref>प्यार के राज़ को छुपाना</ref>
पर हम ऐसे खोये जाते हैं कि वो पा जाये है
उसकी बज़्म-आराइयां<ref>महफिल की कहानियां</ref> सुनकर दिल-ए-रंजूर<ref>पीड़ित दिल</ref> यां
मिस्ल-ए-नक़्श-ए-मुद्दआ-ए-ग़ैर<ref>प्रतिद्वन्द्वी के प्रेम की छाप के समान</ref> बैठा जाये है
होके आशिक़, वो परीरुख़ और नाज़ुक बन गया
रंग खुलता जाये है, जितना कि उड़ता जाये है
नक़्श<ref>चित्र</ref> को उसके मुसव्विर<ref>चित्रकार</ref> पर भी क्या-क्या नाज़ है
खींचता है जिस क़दर, उतना ही खिंचता जाये है
साया मेरा मुझसे मिस्ल-ए-दूद<ref>धुएं के समान</ref> भागे है 'असद'
पास मुझ आतिश-बज़ां<ref>क्रोधी आत्मा</ref> के किस से ठहरा जाये है