"दोस्त ग़मख़्वारी में मेरी सअई फ़रमायेंगे क्या / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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07:08, 26 मार्च 2010 के समय का अवतरण
दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअ़ई<ref>सहायता</ref> फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या
बे-नियाज़ी<ref>उपेक्षा</ref> हद से गुज़री, बन्दा-परवर<ref>मालिक, रखवाला</ref> कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'
हज़रत-ए-नासेह<ref>महान उपदेशक</ref> गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह<ref>आँखें और दिल रस्ते में गलीचे की तरह बिछ जाएगें</ref>
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या
आज वां तेग़ो-कफ़न<ref>तलवार और कफ़न</ref> बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र<ref>प्रशन उठाना, ना-नुकर करना</ref> मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या
गर किया नासेह<ref>उपदेशक</ref> ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या
ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़<ref>जु्ल्फ़ों के कैदी</ref> हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दां<ref>कैदखाना</ref> से घबरायेंगे क्या
है अब इस माअ़मूरा<ref>नगर</ref> में, क़हते-ग़मे-उल्फ़त<ref>प्रेम के दुखों का अकाल</ref> 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या