"गर न अन्दोहे-शबे-फ़ुरक़त बयां हो जाएगा / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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− | पर्तव-ए-माहताब<ref>चांदनी</ref> सैल-ए-ख़ान-मां<ref>घर की बाढ़</ref> हो जाएगा | + | पर्तव-ए-माहताब<ref>चांदनी की किरन</ref> सैल-ए-ख़ान-मां<ref>घर की बाढ़</ref> हो जाएगा |
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दोस्ती नादां<ref>बे-समझ</ref> की है, जी का ज़ियां<ref>नुकसान</ref> हो जाएगा | दोस्ती नादां<ref>बे-समझ</ref> की है, जी का ज़ियां<ref>नुकसान</ref> हो जाएगा | ||
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07:16, 27 मार्च 2010 के समय का अवतरण
गर न अन्दोहे<ref>क्षोभ</ref>-शबे-फ़ुरक़त<ref>जुदाई की रात</ref> बयां हो जाएगा
बे-तकल्लुफ़, दाग़-ए-मह<ref>चांद का दाग</ref> मुहर-ए-दहां<ref>मुंह पर मुहर</ref> हो जाएगा
ज़हरा<ref>पित्ता</ref> गर ऐसा ही शाम-ए-हिज़र<ref>विरह की शाम</ref> में होता है आब<ref>पानी</ref>
पर्तव-ए-माहताब<ref>चांदनी की किरन</ref> सैल-ए-ख़ान-मां<ref>घर की बाढ़</ref> हो जाएगा
ले तो लूं सोते में, उस के पांव का बोसा<ref>चुंबन</ref>, मगर
ऐसी बातों से वह काफ़िर बद-गुमां<ref>असंतुष्ट</ref> हो जाएगा
दिल को हम सरफ़-ए-वफ़ा<ref>प्रेम के लिए अर्पित</ref> समझे थे क्या मालूम था
यानी यह पहले ही नज़र-ए-इम्तिहां<ref>परीक्षा की भेंट</ref> हो जाएगा
सब के दिल में है जगह तेरी, जो तू राज़ी हुआ
मुझ पे गोया इक ज़माना मेहर-बां हो जाएगा
गर निगाह-ए-गरम<ref>रोष की दृष्टि</ref> फ़रमाती रही तालीम-ए-ज़ब्त<ref>संयम की शिक्षा</ref>
शोला ख़स<ref>घास</ref> में जैसे, ख़ूं रग में निहां<ref>छुप</ref> हो जाएगा
बाग़ में मुझ को न ले जा, वरना मेरे हाल पर
हर गुल-ए-तर<ref>फूल</ref> एक चश्म-ए-ख़ूं-फ़िशां<ref>खून के आँसू बरसाती हुई आँख</ref> हो जाएगा
वाए<ref>हाय</ref>, गर मेरा-तेरा इंसाफ़ महशर<ref>कयामत के दिन</ref> में न हो
अब तलक तो, यह तवक़्क़ो<ref>उम्मीद</ref> है कि वां हो जाएगा
फ़ायदा क्या! सोच, आख़िर तू भी दाना<ref>समझदार</ref> है 'असद '
दोस्ती नादां<ref>बे-समझ</ref> की है, जी का ज़ियां<ref>नुकसान</ref> हो जाएगा