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"मैं और बज़्मे-मै से / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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है एक तीर जिसमें दोनों छिदे पड़ें हैं
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07:20, 27 मार्च 2010 के समय का अवतरण

मैं और बज़्मे-मै,<ref>शराब की महफ़िल</ref> से यूं तश्नाकाम<ref>प्यासा</ref> आऊं!
गर मैंने की थी तौबा, साक़ी को क्या हुआ था?

है एक तीर, जिसमें दोनों छिदे पड़ें हैं
वो दिन गए, कि अपना दिल से जिगर जुदा था

दरमान्दगी<ref>दुख</ref> में 'ग़ालिब', कुछ बन पड़े तो जानूं
जब रिश्ता बेगिरह<ref>बिना गांठ के</ref> था, नाख़ून गिरह-कुशा<ref>गांठ खोलनेवाला</ref> था

शब्दार्थ
<references/>