भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अब कहाँ रस्म घर लुटाने की / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) छो () |
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) छो |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ | |रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ | ||
}} | }} | ||
− | + | <poem> | |
− | + | ||
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की | अब कहाँ रस्म घर लुटाने की | ||
− | |||
बर्कतें थी शराबख़ाने की | बर्कतें थी शराबख़ाने की | ||
− | |||
कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे | कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे | ||
− | |||
जान देने की दिल लगाने की | जान देने की दिल लगाने की | ||
− | |||
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल | बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल | ||
− | |||
उनसे जो बात थी बताने की | उनसे जो बात थी बताने की | ||
− | |||
साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल | साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल | ||
− | |||
रह गई आरज़ू सुनाने की | रह गई आरज़ू सुनाने की | ||
− | |||
चाँद फिर आज भी नहीं निकला | चाँद फिर आज भी नहीं निकला | ||
− | |||
कितनी हसरत थी उनके आने की | कितनी हसरत थी उनके आने की | ||
+ | </poem> |
18:34, 28 मार्च 2010 का अवतरण
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की
कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की
साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की
चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की