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"अब कहाँ रस्म घर लुटाने की / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर

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अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
 
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बर्कतें थी शराबख़ाने की
 
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कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
 
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जान देने की दिल लगाने की
 
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बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
 
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उनसे जो बात थी बताने की
 
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साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
 
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रह गई आरज़ू सुनाने की
 
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चाँद फिर आज भी नहीं निकला
 
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कितनी हसरत थी उनके आने की
 
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18:34, 28 मार्च 2010 का अवतरण

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की

कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की

बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की

साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की

चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की