"मैं और मिरी आवारगी / जावेद अख़्तर" के अवतरणों में अंतर
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08:26, 30 मार्च 2010 के समय का अवतरण
फिरते हैं कब से दर-बदर अब इस नगर अब उस नगर
इक दूसरे के हमसफ़र मैं और मिरी आवारगी
नाआश्ना<ref>अपरीचित</ref> हर रहगुज़र नामेहरबां हर इक नज़र
जाएँ तो अब जाएँ किधर मैं और मिरी आवारगी
हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बरबाद थे
बेफ़िक्र थे आज़ाद थे मसरूर<ref>प्रसन्न</ref> थे दिलशाद<ref>दिल से खुश</ref> थे
वो चाल ऐसी चल गया हम बुझ गये दिल जल गया
निकले जलाके अपना घर मैं और मिरी आवारगी
जीना बहुत आसान था इक शख़्स का एहसान था
हमको भी इक अरमान था जो ख़्वाब का सामान था
अब ख़्वाब हैं न आरज़ू अरमान है न जुस्तजू
यूँ भी चलो ख़ुश हैं मगर मैं और मिरी आवारगी
वो माहवश<ref>चाँद जैसी</ref> वो माहरू<ref>चाँद जैसे चेहरेवाली</ref> वो माहे कामिल<ref>पूरा चाँद</ref> हू-बहू
थीं जिस की बातें कू-बकू<ref>गली-गली</ref> उससे अजब थी गुफ़्तगू
फिर यूँ हुआ वो खो गई तो मुझको ज़िद सी हो गई
लायेंगे उस को ढूँढकर मैं और मिरी आवारगी
ये दिल ही था जो सह गया वो बात ऐसी कह गया
कहने को फिर क्या रह गया अश्कों का दरिया बह गया
जब कहके वो दिलबर गया तेरे लिये मैं मर गया
रोते हैं उसको रात भर मैं और मिरी आवारगी
अब ग़म उठायें किसलिये आँसू बहाएँ किसलिये
ये दिल जलाएँ किसलिये यूँ जाँ गवायें किसलिये
पेशा न हो जिसका सितम ढूँढेगे अब ऐसा सनम
होंगे कहीं तो कारगर<ref>सफल</ref> मैं और मिरी आवारगी
आसार हैं सब खोट के इमकान<ref>संभावना</ref> हैं सब चोट के
घर बंद हैं सब गोट के अब ख़त्म है सब टोटके
क़िस्मत का सब ये फेर है अँधेर ही अँधेर है
ऐसे हुए हैं बेअसर मैं और मिरी आवारगी
जब हमदमो हमराज़ था तब और ही अन्दाज़ था
अब सोज़<ref>दर्द</ref> है तब साज़<ref>बाध्य</ref> था अब शर्म है तब नाज़ था
अब मुझसे हो तो हो भी क्या है साथ वो तो वो भी क्या
इक बेहुनर इक बेसमर<ref>निष्फल</ref> मैं और मिरी आवारगी