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"मुझको यक़ीं है सच कहती थीं / जावेद अख़्तर" के अवतरणों में अंतर

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मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं  
 
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जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं  
 
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं  
  
एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया  
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एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया  
एक वो दिन दिन जब पेड़ की शाख़े बोझ हमारा सहती थीं  
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एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं  
  
एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
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एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं  
एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं
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एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं  
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एक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं  
 
एक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं  
  
 
एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं  
 
एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं  
एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं  
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एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं
  
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एक वो दिन जब दिल में सारी भोली बातें रहती थीं  
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एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
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19:34, 30 मार्च 2010 के समय का अवतरण

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं

एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया
एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं

एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं
एक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं

एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं

एक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी<ref>चालाकी</ref> की बातें हैं
एक वो दिन जब दिल में भोली-भाली बातें रहती थीं

एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं

एक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ<ref>तामझाम</ref> रहता है
एक वो घर जिस घर में मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं

शब्दार्थ
<references/>