भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आतंक के साए में / राग तेलंग" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राग तेलंग }} <Poem> चश्मा उतारता हूं धुंधली हो जाती ह...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=राग तेलंग | |रचनाकार=राग तेलंग | ||
+ | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
<Poem> | <Poem> | ||
चश्मा उतारता हूं | चश्मा उतारता हूं |
22:00, 2 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
चश्मा उतारता हूं
धुंधली हो जाती है दुनिया
ऐसा लगता है
बारूदी धुएँ से अटा पड़ा है सब कुछ
चीज़ें साफ़ नज़र नहीं आतीं
जैसे अभी-अभी हुआ है विस्फोट
क्षत-विक्षत लाशें चलती हुईं दिखती हैं
स्त्रियों-बच्चों के भय से स्वर मिलाकर
जो कहना चाहता हूं अटक जाता है गले में ही
बेरहम तंत्र
मेरे सामने जो नोट फेंक जाता है
उसमें से बाहर निकलकर आता है
एक बूढ़ा क्रांतिकारी
झुककर देता है मुझे मेरा चश्मा
कहता है
`सत्यमेव जयते को फिर से पढ़ो और नया कुछ गढ़ो´ ।