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12:44, 3 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
बोतलों से जिन्न निकाले जाएँगे
आज फिर मुद्दे उछाले जाएँगे।
वक्त की काई जिन्हें ढकती रही
ताल वो फिर से खँगाले जाएँगे।
इस तरफ मस्जिद गिरी तो उस तरफ़।
राम,मंदिर से निकाले जाएँगे।
मुफ़लिसी में बाप का साया गया
अब से बच्चों के निवाले जाएँगे।
आज संसद में हमारे सब सवाल
गेंद के जैसे उछाले जाएँगे।
तेज़ तूफ़ाँ मे दरख्तों से भला
कैसे ये पत्ते सँभाले जाएँगे।
वो रहे लश्कर अँधेरों के 'ख्याल'
ज़िंदगी से अब उजाले जाएँगे।