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13:11, 3 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
जाने किस बात की अब तक वो सज़ा देता है
बात करता है कि बस जी ही जला देता है
बात होती है इशारों में जो रूठे है कभी
उसका हम पर यूँ बिगड़ना भी मजा देता है
बात करेने का सलीक़ा भी तो कुछ होता है
वो हरिक बात पे नशतर-सा चुभा देता है
हमने दी है जो कभी उसको खुशी की अर्ज़ी
पुर्जा-पुर्जा वो हवाओं में उड़ा देता है
है अँधेरों में चराग़ों सा वजूद उसका "ख़याल"
राह भटका हो कोई राह दिखा देता है