"ईर्ष्या / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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+ | नवपट्टिका बनाती रुचिर साज, | ||
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+ | आया समीप था महापर्व। | ||
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+ | वह सहज-खेद से भरा रूप, | ||
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+ | "यह हिंसा इतनी है प्यारी | ||
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+ | जो भुलवाती है देह-देह |
21:18, 12 फ़रवरी 2007 का अवतरण
लेखक: जयशंकर प्रसाद
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पल भर की उस चंचलता ने
खो दिया हृदय का स्वाधिकार,
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा
फैलाती निष्फल अंधकार
मनु को अब मृगया छोड नहीं
रह गया और था अधिक काम
लग गया रक्त था उस मुख में-
हिंसा-सुख लाली से ललाम।
हिंसा ही नहीं-और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर,
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा
जो बढती हो अवसाद चीर।
जो कुछ मनु के करतलगत था
उसमें न रहा कुछ भी नवीन,
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं रुचता
अब था बन रहा दीन।
उठती अंतस्तल से सदैव
दुर्ललित लालसा जो कि कांत,
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो
दब जाती अपने आप शांत।
"निज उद्गम का मुख बंद किये
कब तक सोयेंगे अलस प्राण,
जीवन की चिर चंचल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राण
श्रद्धा का प्रणय और उसकी
आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति,
जिसमें व्याकुल आलिंगन का
अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति
भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं
नव-नव स्मित रेखा में विलीन,
अनुरोध न तो उल्लास,
नहीं कुसुमोद्गम-साकुछ भी नवीन
आती है वाणी में न कभी
वह चाव भरी लीला-हिलोर,
जिसमेम नूतनता नृत्यमयी
इठलाती हो चंचल मरोर।
जब देखो बैठी हुई वहीं
शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत,
या अन्न इकट्ठे करती है
होती न तनिक सी कभी क्लांत
बीजों का संग्रह और इधर
चलती है तकली भरी गीत,
सब कुछ लेकर बैठी है वह,
मेरा अस्तित्व हुआ अतीत"
लौटे थे मृगया से थक कर
दिखलाई पडता गुफा-द्वार,
पर और न आगे बढने की
इच्छा होती, करते विचार
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी,
मनु बैठ गये शिथिलित शरीर
बिखरे ते सब उपकरण वहीं
आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।
" पश्चिम की रागमयी संध्या
अब काली है हो चली, किंतु,
अब तक आये न अहेरी
वे क्या दूर ले गया चपल जंतु
" यों सोच रही मन में अपने
हाथों में तकली रही घूम,
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली
अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।
केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह
आँखों में आलस भरा स्नेह,
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंपित लतिका-सी लिये देह
मातृत्व-बोझ से झुके हुए
बंध रहे पयोधर पीन आज,
कोमल काले ऊनों की
नवपट्टिका बनाती रुचिर साज,
सोने की सिकता में मानों
कालिदी बहती भर उसाँस।
स्वर्गगा में इंदीवर की या
एक पंक्ति कर रही हास
कटि में लिपटा था नवल-वसन
वैसा ही हलका बुना नील।
दुर्भर थी गर्भ-मधुर पीडा
झेलती जिसे जननी सलील।
श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा
भावी जननी का सरस गर्व,
बन कुसुम बिखरते थे भू पर
आया समीप था महापर्व।
मनु ने देखा जब श्रद्धा का
वह सहज-खेद से भरा रूप,
अपनी इच्छा का दृढ विरोध-
जिसमें वे भाव नहीं अनूप।
वे कुछ भी बोले नहीं,
रहे चुपचाप देखते साधिकार,
श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी
ज्यों जान गई उनका विचार।
'दिन भर थे कहाँ भटकते तम'
बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-
"यह हिंसा इतनी है प्यारी
जो भुलवाती है देह-देह