"आमद-ए-ख़त से हुआ है / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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आमद-ए-ख़त<ref>उजाला होने</ref> से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त | आमद-ए-ख़त<ref>उजाला होने</ref> से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त | ||
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यह ग़ज़ल अपनी मुझे जी से पसन्द आती है आप | यह ग़ज़ल अपनी मुझे जी से पसन्द आती है आप | ||
है रदीफ़<ref>हर शेर के अन्त में आने वाले समान शब्द</ref>-ए-शेर में 'ग़ालिब' ज़बस तकरार-ए-दोस्त<ref>प्रिय शब्द का बार-बार ज़िक्र</ref> | है रदीफ़<ref>हर शेर के अन्त में आने वाले समान शब्द</ref>-ए-शेर में 'ग़ालिब' ज़बस तकरार-ए-दोस्त<ref>प्रिय शब्द का बार-बार ज़िक्र</ref> | ||
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18:24, 15 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
आमद-ए-ख़त<ref>उजाला होने</ref> से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
दूद-ए-शम-ए-कुश्ता<ref>बुझे हुए चिराग का धुँआ</ref> था शायद ख़त-ए-रुख़्सार-ए-दोस्त<ref>प्रियतम का चेहरे का रोंआ</ref>
ऐ दिले-ना-आ़क़बत-अंदेश<ref>परिणाम ना समझने वाला दिल</ref> ज़ब्त-ए-शौक़<ref>शौक़ को संयत कर</ref> कर
कौन ला सकता है ताबे-जल्वा-ए-दीदार-ए-दोस्त<ref>प्रिय को देखने का सामर्थ्य</ref>
ख़ाना<ref>घर</ref>-वीरां-साज़ी-ए-हैरत<ref>बरबादी से उत्पन्न हैरानी</ref>-तमाशा कीजिये
सूरत-ए-नक़्शे-क़दम<ref>पद्दचिन्ह के समान</ref> हूँ रफ़्ता-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त<ref>प्रिय की मंथर गति पर मोहित</ref>
इश्क़ में बेदाद-ए-रश्क़-ए-ग़ैर<ref>प्रतिद्वंदी की ईर्ष्या</ref> ने मारा मुझे
कुश्ता-ए-दुश्मन<ref>दुश्मन का मारा हुआ</ref> हूँ आख़िर, गर्चे था बीमार-ए-दोस्त
चश्म-ए-मा-रौशन<ref>मेरी आंख प्रकाशमान है</ref> कि उस बेदर्द का दिल शाद<ref>प्रसन्न</ref> है
दीदा-ए-पुरख़ूँ हमारा साग़र-ए-सरशार-ए-दोस्त<ref>यार के तिए भरा हुआ प्याला</ref>
ग़ैर यूं करता है मेरी पुरसिश<ref>पूछ-ताछ</ref> उस के हिज़्र<ref>वियोग</ref> में
बे-तकल्लुफ़ दोस्त हो जैसे कोई ग़मख़्वार-ए-दोस्त
ताकि मैं जानूं कि है उस की रसाई<ref>पहुंच</ref> वां तलक
मुझ को देता है पयाम-ए-वादा-ए-दीदार-ए-दोस्त<ref>प्रिय के दर्शन के वचन के संदेश</ref>
जबकि मैं करता हूं अपना शिकवा-ए-ज़ोफ़-ए-दिमाग़<ref>मानसिक दुर्बलता की शिकायत</ref>
सर करे है वह हदीस-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बर-बार-ए-दोस्त<ref>प्रिय की खुशबू बिखेरने वाली ज़ुल्फ़ की बात</ref>
चुपके-चुपके मुझ को रोते देख पाता है अगर
हंस के करता है बयाने-शोख़ी-ए-गुफ़्तारे-दोस्त
मेहरबानी हाए-दुश्मन की शिकायत कीजिये
या बयां कीजे, सिपासे-लज़्ज़ते-आज़ारे-दोस्त<ref>प्रिय द्वारा मिलने वाली तकलीफ के आनन्द की प्रशंसा</ref>
यह ग़ज़ल अपनी मुझे जी से पसन्द आती है आप
है रदीफ़<ref>हर शेर के अन्त में आने वाले समान शब्द</ref>-ए-शेर में 'ग़ालिब' ज़बस तकरार-ए-दोस्त<ref>प्रिय शब्द का बार-बार ज़िक्र</ref>