"समर निंद्य है / भाग २ / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर' | |रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर' | ||
− | |संग्रह= | + | |संग्रह= समर निंद्य है / रामधारी सिंह 'दिनकर' |
}} | }} | ||
02:07, 25 जनवरी 2008 का अवतरण
अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वंद हो जारी;
ऊपर, शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिंगारी;
आगामी विस्फोट काल के
मुख पर दमक रहा हो;
इंगित में अंगार विवश
भावों के चमक रहा हो;
पढ़कर भी संकेत सजग हों
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
कभी नये शोषण से, कभी
उपेक्षा, कभी दमन से,
अपमानों से कभी, कभी
शर-वेधक व्यंत्य-वचन से।
दबे हुए आवेग वहाँ यदि
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें,
कहो कौन दायी होगा
उस दारुण जगद्दहन का
अहंकार या घृणा? कौन
दोषी होगा उस रण का ?
तुम विषण्ण हो समझ
हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की
बरसी थी अंबर से?
अथवा अकस्मात मिट्टि से
फूटी थी यह ज्वाला ?
या मंत्रों के बल से जनमी
थी यह शिखा कराला ?
कुरुक्षेत्र से पूर्व नहीं क्या
समर लगा था चलने ?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने ?
शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
जब वर्जन करती है,
तभी जान लो, किसी समर का
वह सर्जन करती है।
शान्ति नहीं तब तक; जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।
ऐसी शान्ति राज्य करती है
तन पर नहीं हृदय पर,
नर के ऊँचे विश्वासों पर,
श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।