भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कितना आसान लगता था / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= श्रद्धा जैन }} {{KKCatNazm}} <poem> कितना आसान लगता था ख़्वा…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:47, 24 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
कितना आसान लगता था
ख़्वाब में नए रंग भरना
आसमाँ मुट्ठी में करना
ख़ुश्बू से आँगन सजाना
बरसात में छत पर नहाना
कितना आसान लगता था
दौड़ कर तितली पकड़ना
हर बात पर ज़िद में झगड़ना
झील में नए गुल खिलाना
कश्तियों में, पार जाना
कितना आसान लगता था
जिंदगी में पर हक़ीक़त
ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है
जिंदगी समझौता है इक
कोई जिद चलती नहीं है
जिंदगी में पर हक़ीक़त
ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है