भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सूर्य / एकांत श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) छो ("सूर्य / एकांत श्रीवास्तव" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<Poem> | <Poem> | ||
उधर | उधर | ||
− | + | ज़मीन फट रही है | |
और वह उग रहा है | और वह उग रहा है | ||
चमक रही हैं नदी की ऑंखें | चमक रही हैं नदी की ऑंखें | ||
पंक्ति 16: | पंक्ति 16: | ||
वह उग रहा है | वह उग रहा है | ||
वह खिलेगा | वह खिलेगा | ||
− | जल भरी | + | जल भरी आँखों के सरोवर में |
रोशनी की फूल बनकर | रोशनी की फूल बनकर | ||
वह चमकेगा | वह चमकेगा | ||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
उग रहा है | उग रहा है | ||
उधर | उधर | ||
− | आहिस्ता- | + | आहिस्ता-आहिस्ता। |
</poem> | </poem> | ||
− | |||
− |
00:22, 27 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
उधर
ज़मीन फट रही है
और वह उग रहा है
चमक रही हैं नदी की ऑंखें
हिल रहे हैं पेड़ों के सिर
और पहाड़ों के
कन्धों पर हाथ रखता
आहिस्ता-आहिस्ता
वह उग रहा है
वह खिलेगा
जल भरी आँखों के सरोवर में
रोशनी की फूल बनकर
वह चमकेगा
धरती के माथ पर
अखण्ड सुहाग की
टिकुली बनकर
वह
पेड़ और चिडि़यों के दुर्गम अंधेरे में
सुबह की पहली खुशबू
और हमारे खून की ऊष्मा बनकर
उग रहा है
उधर
आहिस्ता-आहिस्ता।