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416, सेक्‍टर 38 / लाल्टू

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चार सौ सोलह, सेक्‍टर अड़तीस में<br />{{KKGlobal}}हम दो रहते हैं<br />{{KKRachna<br />|रचनाकार=लाल्टूसमय और स्‍थान के भूगोल को<br |संग्रह= एक झील थी बर्फ़ की />लाल्टूदो कमरों में हमने<br />}}समेटना चाहा है<br /><br />बॉंटना चाहा है<br />खुद को<br />हरे-पीले पत्‍तों में<br /><br />हमारे छोटे से सुख-दुःख हैं<br />हम झगड़ते हैं, प्‍यार करते हैं<br /><br />दूर-सुदूर देशों तक<br />हमारे धागे<br />पहुंचते हैं स्‍पंदित होंठों तक<br />आक्रोश भरे दिन-रात<br />आ बिखरते हैं<br /poem>चार सौ सोलह, सेक्‍टर अड़तीस<br />मेंके हम दो कमरों में<br /><br />हमारे आस्‍मान में<br />एक चॉंद उगता है<br /><br />रहते हैं
समय और स्‍थान के भूगोल को
दो कमरों में हमने
समेटना चाहा है
बाँटना चाहा हैख़ुद कोहरे-पीले पत्‍तों में हमारे छोटे से सुख-[[सदस्य:Pradeep Jilwane|Pradeep Jilwane]] 06:14दुःख हैंहम झगड़ते हैं, 25 अप्रैल 2010 (UTC)प्‍यार करते हैं दूर-सुदूर देशों तकहमारे धागेपहुँचते हैं स्‍पंदित होंठों तकआक्रोश भरे दिन-रातआ बिखरते हैंचार सौ सोलह, सेक्‍टर अड़तीसके दो कमरों में हमारे आसमान मेंएक चाँद उगता हैजिसे बाँट देते हैं हमलोगों मेंकभी किसी तारे कोअपनी आँखों में दबोचउतार लाते हैं सीने तकफिर छोड़ देते हैंकुछ क्षणों बाद डरते हैंखो न जाएँतारेकमरे तो दो ही हैंकहाँ छिपाएँ?</poem>
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