भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बेपरदा / नन्दल हितैषी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नन्दल हितैषी }} {{KKCatKavita}} <poem> जब भी आता है, पतझर बेपरदा…)
(कोई अंतर नहीं)

20:46, 29 अप्रैल 2010 का अवतरण

जब भी आता है, पतझर
बेपरदा कर देता है
घोसलों को,
टहनियों और ’फुनगियों’ को
चेचक सी निकल आती है,
परिन्दों को
अपना ही ’खोन्था’
कँटीला नज़र आता है ....
और पत्तियाँ
खाद बनकर सार्थक हो लेती हैं
बसंत आता है
(बस - अन्त आता है)
कोपलें छितरा उठती हैं
..... घोसले और भी सुरक्षित
मगन हो
चहचहा उठते हैं.
और पत्तियाँ?
ताली बजा कर
स्वागत करती हैं.
और आदमी है
कुल्हाड़ी पर ’सान’ धरता
इस आदमी को भी -
बेपरदा करो भाई
पतझर तो बेपरदा कर देता है
घोसलों को.