"अमरकंटक / एकांत श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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और यह स्वयं एक मीठे सपने की तरह | और यह स्वयं एक मीठे सपने की तरह | ||
− | बसा है नर्मदा की जल भरी | + | बसा है नर्मदा की जल भरी आँखों में |
बरसों से जुड़े हैं | बरसों से जुड़े हैं | ||
इस शहर के हाथ | इस शहर के हाथ | ||
− | और | + | और काँप रहे हैं होंठ 'नर्मदे हर' |
यह | यह | ||
मन्दिर की चौखट पर बैठा है | मन्दिर की चौखट पर बैठा है | ||
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झरने गीत हैं इस शहर के | झरने गीत हैं इस शहर के | ||
− | जो | + | जो गूँज रहे हैं |
पत्थरों के उदास मन में | पत्थरों के उदास मन में | ||
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जिसकी पगडंडियों पर | जिसकी पगडंडियों पर | ||
− | छूटे हैं कालिदास के | + | छूटे हैं कालिदास के पाँव के निशान |
आज भी हैं | आज भी हैं | ||
गुलबकावली के फूलों में | गुलबकावली के फूलों में | ||
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बैठें हैं कबूतर | बैठें हैं कबूतर | ||
ओ दुष्यन्त! | ओ दुष्यन्त! | ||
− | + | यहाँ हैं तुम्हारे कबूतर | |
चुगते चावल के दाने | चुगते चावल के दाने | ||
पीते कुण्ड का जल | पीते कुण्ड का जल | ||
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यह हाथ में | यह हाथ में | ||
कमण्डल लिए खड़ा है | कमण्डल लिए खड़ा है | ||
− | किसी भी | + | किसी भी वक़्त |
− | जंगल में | + | जंगल में ग़ुम होने को तैयार |
− | बरसों से कबीर के | + | बरसों से कबीर के इंतज़ार में है |
एक उदास चबूतरा | एक उदास चबूतरा | ||
− | कि वे लौट | + | कि वे लौट आएँगे किसी भी वक़्त |
और छील देंगे | और छील देंगे | ||
एक उबले आलू की तरह | एक उबले आलू की तरह | ||
पंक्ति 74: | पंक्ति 74: | ||
जब फैल जाती है रात की चादर | जब फैल जाती है रात की चादर | ||
− | नींद के | + | नींद के धुएँ में डूब जाते हैं पेड़ |
फूल और पहाड़ | फूल और पहाड़ | ||
इसकी गहरी घाटियों में | इसकी गहरी घाटियों में | ||
− | + | गूँजती है सोन की पुकार | |
+ | नर्मदा ओ... | ||
नर्मदा ओ..... | नर्मदा ओ..... | ||
− | नर्मदा ओ | + | नर्मदा ओ........ |
− | + | ||
और पहाड़ों के सीने में | और पहाड़ों के सीने में | ||
ढुलकते हैं | ढुलकते हैं | ||
− | नर्मदा के | + | नर्मदा के आँसू। |
− | </ | + | </poem> |
19:31, 1 मई 2010 के समय का अवतरण
बरसों से
नर्मदा के जल में
एकटक देख रहा है अपना चेहरा
यह शहर
इसके सपने
विन्ध्याचल की नींद में
टहल रहे हैं
और यह स्वयं एक मीठे सपने की तरह
बसा है नर्मदा की जल भरी आँखों में
बरसों से जुड़े हैं
इस शहर के हाथ
और काँप रहे हैं होंठ 'नर्मदे हर'
यह
मन्दिर की चौखट पर बैठा है
बरसों से छोड़कर अपना घर
इसकी घाटियों से आ रही है
करौंदे, नीम
और मकोई के फूलों की गन्ध
झरने गीत हैं इस शहर के
जो गूँज रहे हैं
पत्थरों के उदास मन में
वसन्त में होता है यह शहर
एक बार फिर
वही बरसों पुराना 'आम्रकूट'
जिसकी पगडंडियों पर
छूटे हैं कालिदास के पाँव के निशान
आज भी हैं
गुलबकावली के फूलों में
कालिदास के हाथों का स्पर्श
'कालिदास.....कालिदास.....'
पुकारते हैं सागौन के पत्ते
और 'मेघदूत' के
पन्नों की तरह फड़फड़ाते हैं
बरसों से यह शहर
कपिल के उठे हुए हाथ के नीचे
भीग रहा है
मीठे दूध की धार में
बरसों से
इसके मंदिरों की गुम्बदों पर
बैठें हैं कबूतर
ओ दुष्यन्त!
यहाँ हैं तुम्हारे कबूतर
चुगते चावल के दाने
पीते कुण्ड का जल
यह हाथ में
कमण्डल लिए खड़ा है
किसी भी वक़्त
जंगल में ग़ुम होने को तैयार
बरसों से कबीर के इंतज़ार में है
एक उदास चबूतरा
कि वे लौट आएँगे किसी भी वक़्त
और छील देंगे
एक उबले आलू की तरह
शहर का चेहरा
जब फैल जाती है रात की चादर
नींद के धुएँ में डूब जाते हैं पेड़
फूल और पहाड़
इसकी गहरी घाटियों में
गूँजती है सोन की पुकार
नर्मदा ओ...
नर्मदा ओ.....
नर्मदा ओ........
और पहाड़ों के सीने में
ढुलकते हैं
नर्मदा के आँसू।