"पेड़ बनाम आदमी / नन्दल हितैषी" के अवतरणों में अंतर
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पेड़ / जितना झेलता है | पेड़ / जितना झेलता है | ||
सूरज को | सूरज को | ||
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पेड़ / जितना झेलता है | पेड़ / जितना झेलता है | ||
मौसम को | मौसम को | ||
− | मौसम कभी नहीं | + | मौसम कभी नहीं झेलता। |
...... और पेड़ / जितना झेलता है | ...... और पेड़ / जितना झेलता है | ||
आदमी को | आदमी को | ||
− | आदमी कभी नहीं | + | आदमी कभी नहीं झेलता। |
सच तो यह है | सच तो यह है | ||
पेड़ / अँधेरे में भी | पेड़ / अँधेरे में भी | ||
रोशनी फेंकते हैं | रोशनी फेंकते हैं | ||
और अपने तैनात रहने को | और अपने तैनात रहने को | ||
− | देते हैं | + | देते हैं आकार। |
..... और आदमी उजाले में | ..... और आदमी उजाले में | ||
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और फलते हैं गिद्ध | और फलते हैं गिद्ध | ||
वही करते हैं बूढ़े बरगद की | वही करते हैं बूढ़े बरगद की | ||
− | लम्बी यात्रा को अन्तिम | + | लम्बी यात्रा को अन्तिम प्रणाम। |
अगर उगने पर ही उतारू, | अगर उगने पर ही उतारू, | ||
हो जाय पेड़ | हो जाय पेड़ | ||
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पेड़ / कभी धरती पर भारी नहीं होते, | पेड़ / कभी धरती पर भारी नहीं होते, | ||
− | आदमी की तरह / आरी नहीं | + | आदमी की तरह / आरी नहीं होते। |
− | पेड़ / अपनी जमीन पर खड़े | + | पेड़ / अपनी जमीन पर खड़े हैं। |
इसलिये / आदमी से बड़े हैं, | इसलिये / आदमी से बड़े हैं, | ||
पेड़ / जितना झेलता है | पेड़ / जितना झेलता है | ||
सूरज को | सूरज को | ||
− | सूरज कभी नहीं | + | सूरज कभी नहीं झेलता। |
पेड़ / जितना झेलता है | पेड़ / जितना झेलता है | ||
मौसम को | मौसम को | ||
− | मौसम कभी नहीं | + | मौसम कभी नहीं झेलता। |
...... और पेड़ / जितना झेलता है | ...... और पेड़ / जितना झेलता है | ||
आदमी को | आदमी को | ||
− | आदमी कभी नहीं | + | आदमी कभी नहीं झेलता। |
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01:59, 2 मई 2010 के समय का अवतरण
पेड़ / जितना झेलता है
सूरज को
सूरज कभी नहीं झेलता।
पेड़ / जितना झेलता है
मौसम को
मौसम कभी नहीं झेलता।
...... और पेड़ / जितना झेलता है
आदमी को
आदमी कभी नहीं झेलता।
सच तो यह है
पेड़ / अँधेरे में भी
रोशनी फेंकते हैं
और अपने तैनात रहने को
देते हैं आकार।
..... और आदमी उजाले में
जो उगलता है विष
महज़ पेड़ ही उसे पचाते हैं
पेड़ / रात में बगुलों के लिये
तालाब बन जाते हैं
और आत्मसात कर लेते हैं
’बगुलाहिन’ गंध
पेड़ / जब उपेक्षित होते हैं
तब ठूँठ होते हैं
और फलते हैं गिद्ध
वही करते हैं बूढ़े बरगद की
लम्बी यात्रा को अन्तिम प्रणाम।
अगर उगने पर ही उतारू,
हो जाय पेड़
तो चिड़िया के बीट से भी
अँकुरा सकते हैं
किले की मोटी और मजबूत दीवारों को फोड़
खींच सकते हैं अपनी खुराक
जुल्म की लम्बी और मजबूत परम्परा को
खोखला कर सकते हैं
पेड़ / कभी धरती पर भारी नहीं होते,
आदमी की तरह / आरी नहीं होते।
पेड़ / अपनी जमीन पर खड़े हैं।
इसलिये / आदमी से बड़े हैं,
पेड़ / जितना झेलता है
सूरज को
सूरज कभी नहीं झेलता।
पेड़ / जितना झेलता है
मौसम को
मौसम कभी नहीं झेलता।
...... और पेड़ / जितना झेलता है
आदमी को
आदमी कभी नहीं झेलता।