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|संग्रह=ग्राम्‍या / सुमित्रानंदन पंत
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यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन की,
यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की।
आता मौन प्रभात अकेला, संध्या भरी उदासी,
यहाँ घूमती दोपहरी में स्वप्नों की छाया सी।
यहाँ नहीं विद्युत दीपों का दिवस निशा में निर्मित,
अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित।
यहाँ खर्व नर (बानर?) रहते युग युग से अभिशापित, अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित।यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन कीनरक अपरिचित, <br> यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की !<br>यह भारत का ग्राम,-सभ्यता, संस्कृति से निर्वासित। आता मौन प्रभात अकेलाझाड़ फूँस के विवर, संध्या --यही क्या जीवन शिल्पी के घर? कीड़ों-से रेंगते कौन ये? बुद्धिप्राण नारी नर? अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी उदासीयहाँ के जग में, <br> यहाँ घूमती दोपहरी गृह- गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में स्वप्नों की छाया सी !<br><br>
यहाँ नहीं विद्युत दीपों यह रवि शशि का दिवस निशा लोक,--जहाँ हँसते समूह में निर्मितउडुगण, <br> अँधियाली में जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन।यहाँ वनस्पति रहते, रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित !<br>खेतों की हरियाली, यहाँ खर्व नर (वानर ?) फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली!ये रहते युग युग से अभिशापितहैं यहाँ, <br>--और नीला नभ, बोई धरती, अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्यसूरज का चौड़ा प्रकाश, निर्बुद्धिज्योत्स्ना चुपचाप विचरती! प्रकृति धाम यह: तृण तृण, पंक में पालित कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित, यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवनन्मृत!<br><br>
यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित, <br>रचनाकाल: दिसंबर’ ३९यह भारत का ग्राम,-सभ्यता संस्कृति से निर्वासित !<br/poem><br> झाड़ फूँस के विवर,-यही क्या जीवन शिल्पी के घर ?<br>कीड़ों-से रेंगते कौन ये ? बुद्धि प्राण नारी नर ?<br><br> अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जन में, <br>गृह-गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में ?<br>यह रवि शशि का लोक,-जहाँ हँसते समूह में उडुगण, <br>जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन !<br>यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली, <br>यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली !<br><br> ये रहते हैं यहाँ, और नीला नभ, बोई धरती, <br>सूरज का चौड़ा प्रकाश, ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती !<br><br> प्रकृति धाम यह: तृण तृण कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित, <br>यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवन-मृत !!
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