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"कुसुमों के जीवन का पल / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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हँसता ही जग में देखा,  
 
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इन म्लान, मलिन अधरों पर  
 
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स्थिर रही न स्मिति की रेखा !   
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:बन की सूनी डाली पर  
वन की सूनी डाली पर  
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:सीखा कलि ने मुसकाना,  
सीखा कलि ने मुसकाना,  
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:मैं सीख न पाया अब तक  
मैं सीख न पाया अब तक  
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:सुख से दुख को अपनाना।  
सुख से दुख को अपनाना !  
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काँटों से कुटिल भरी हो  
 
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यह जटिल जगत की डाली,  
 
यह जटिल जगत की डाली,  
 
इसमें ही तो जीवन के  
 
इसमें ही तो जीवन के  
पल्लव की फूटी लाली ! 
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पल्लव की फूटी लाली।
 
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:अपनी डाली के काँटे  
अपनी डाली के काँटे  
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:बेधते नहीं अपना तन,
बेधते नहीं अपना तन  
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:सोने-सा उज्ज्वल बनने  
सोने-सा उज्जवल बनने  
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:तपता नित प्राणों का धन।  
तपता नित प्राणों का धन !  
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दुख-दावा से नव-अंकुर  
 
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पाता जग-जीवन का बन,  
दुख-दावा से नव अंकुर  
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पाता जग-जीवन का वन,  
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करुणार्द्र विश्व की गर्जन,  
 
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,  
बरसाती नव जीवन-कण !   
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बरसाती नव-जीवन-कण!   
  
(फरवरी,1932)
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रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
 
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13:20, 10 मई 2010 का अवतरण

कुसुमों के जीवन का पल
हँसता ही जग में देखा,
इन म्लान, मलिन अधरों पर
स्थिर रही न स्मिति की रेखा!
बन की सूनी डाली पर
सीखा कलि ने मुसकाना,
मैं सीख न पाया अब तक
सुख से दुख को अपनाना।
काँटों से कुटिल भरी हो
यह जटिल जगत की डाली,
इसमें ही तो जीवन के
पल्लव की फूटी लाली।
अपनी डाली के काँटे
बेधते नहीं अपना तन,
सोने-सा उज्ज्वल बनने
तपता नित प्राणों का धन।
दुख-दावा से नव-अंकुर
पाता जग-जीवन का बन,
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,
बरसाती नव-जीवन-कण!

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२