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"जाने किस छल-पीड़ा से / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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जाने किस छल-पीड़ा से  
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:जाने किस छल-पीड़ा से  
व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,  
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:व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,  
ज्यों बरस-बरस पड़ने को  
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:ज्यों बरस-बरस पड़ने को  
हों उमड़-उमड़ उठते घन !   
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अधरों पर मधुर अधर धर,  
 
अधरों पर मधुर अधर धर,  
कहता मदु स्वर में जीवन-  
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कहता मृदु स्वर में जीवन--  
 
बस एक मधुर इच्छा पर  
 
बस एक मधुर इच्छा पर  
अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन
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अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन!
       
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:पुलकों से लद जाता तन,  
पुलकों से लद जाता तन,  
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:मुँद जाते मद से लोचन;
मुँद जाते मद से लोचन  
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:तत्क्षण सचेत करता मन--
तत्क्षण सचेत करता मन-  
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:ना, मुझे इष्ट है साधन!
ना, मुझे इष्ट है साधन
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इच्छा है जग का जीवन,
 
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इच्छा है जग का जीवन  
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पर साधन आत्मा का धन;  
 
पर साधन आत्मा का धन;  
जीवन की इच्छा है छल  
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जीवन की इच्छा है छल,
आत्मा का जीवन जीवन !  
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इच्छा का जीवन जीवन।  
 
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:फिरतीं नीरव नयनों में  
फिरतीं नीरव नयनों में  
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:छाया-छबियाँ मन-मोहन,
छाया-छबियाँ मन-मोहन  
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:फिर-फिर विलीन होने को  
फिर-फिर विलीन होने को  
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:ज्यों घिर-घिर उठते हों घन।
ज्यों घिर-घिर उठते हों घन 
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ये आधी, अति इच्छाएँ  
 
ये आधी, अति इच्छाएँ  
साधन भी बाधा बंधन;  
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साधन में बाधा-बंधन;  
साधन भी इच्छा ही है  
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साधन भी इच्छा ही है,
सम-इच्छा ही रे साधन !  
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सम-इच्छा ही रे साधन।  
 
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:रह-रह मिथ्या-पीड़ा से  
रह-रह मिथ्या-पीड़ा से  
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:दुखता-दुखता मेरा मन,
दुखता-दुखता मेरा मन  
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:मिथ्या ही बतला देती  
मिथ्या ही बतला देती  
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:मिथ्या का रे मिथ्यापन!   
मिथ्या का रे मिथ्यापन !   
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(फरवरी,1932)
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रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
 
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13:26, 10 मई 2010 का अवतरण

जाने किस छल-पीड़ा से
व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,
ज्यों बरस-बरस पड़ने को
हों उमड़-उमड़ उठते घन!
अधरों पर मधुर अधर धर,
कहता मृदु स्वर में जीवन--
बस एक मधुर इच्छा पर
अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन!
पुलकों से लद जाता तन,
मुँद जाते मद से लोचन;
तत्क्षण सचेत करता मन--
ना, मुझे इष्ट है साधन!
इच्छा है जग का जीवन,
पर साधन आत्मा का धन;
जीवन की इच्छा है छल,
इच्छा का जीवन जीवन।
फिरतीं नीरव नयनों में
छाया-छबियाँ मन-मोहन,
फिर-फिर विलीन होने को
ज्यों घिर-घिर उठते हों घन।
ये आधी, अति इच्छाएँ
साधन में बाधा-बंधन;
साधन भी इच्छा ही है,
सम-इच्छा ही रे साधन।
रह-रह मिथ्या-पीड़ा से
दुखता-दुखता मेरा मन,
मिथ्या ही बतला देती
मिथ्या का रे मिथ्यापन!

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२