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"पिता के नाम (दो) / अनिल जनविजय" के अवतरणों में अंतर

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प्रिय पिता!
 
प्रिय पिता!
 
 
याद हैं मुझे
 
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अपने बचपन के वे दिन
 
अपने बचपन के वे दिन
 
  
 
मैं  
 
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खेला करता था
 
खेला करता था
 
 
तुम्हारे नर्म, मुलायम
 
तुम्हारे नर्म, मुलायम
 
 
रेशमी, काले बालों से
 
रेशमी, काले बालों से
 
 
सख़्त, चुभती हुई काली दाढ़ी से
 
सख़्त, चुभती हुई काली दाढ़ी से
 
 
अपना कोमल चेहरा रगड़ता था बार-बार
 
अपना कोमल चेहरा रगड़ता था बार-बार
 
  
 
मैं सोचता था देखकर
 
मैं सोचता था देखकर
 
 
तुम्हारे काले बाल
 
तुम्हारे काले बाल
 
 
सफ़ेद क्यों नहीं हैं वे
 
सफ़ेद क्यों नहीं हैं वे
 
 
सान्ताक्लाज़ के बालों की तरह
 
सान्ताक्लाज़ के बालों की तरह
 
 
रूई की तरह
 
रूई की तरह
 
 
बर्फ़ की तरह
 
बर्फ़ की तरह
 
 
सफ़ेद
 
सफ़ेद
 
  
 
मैं  
 
मैं  
 
 
बार-बार तुमसे पूछा करता था
 
बार-बार तुमसे पूछा करता था
 
 
बाबा ! तुम सान्ताक्लाज़ कब बनोगे ?
 
बाबा ! तुम सान्ताक्लाज़ कब बनोगे ?
 
 
और तुम मुस्करा देते थे धीरे से
 
और तुम मुस्करा देते थे धीरे से
 
 
किसी मीठी कल्पना में खोकर
 
किसी मीठी कल्पना में खोकर
 
 
या फिर  
 
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माँ को बुलाकर
 
माँ को बुलाकर
 
 
मेरा प्रश्न दोहरा देते थे
 
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हज़ारों
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घंटियों के बजने की
 
घंटियों के बजने की
 
 
आवाज़-सी उसकी हँसी से
 
आवाज़-सी उसकी हँसी से
 
 
गूँजने लगती थीं चारों दिशाएँ परस्पर
 
गूँजने लगती थीं चारों दिशाएँ परस्पर
 
  
 
मुझे याद है
 
मुझे याद है
 
 
तुम मुझे गोद में भरकर
 
तुम मुझे गोद में भरकर
 
 
ऊपर उछालने लगते थे
 
ऊपर उछालने लगते थे
 
 
माँ डर जाती
 
माँ डर जाती
 
 
घंटियों की आवाज़ बन्द हो जाती
 
घंटियों की आवाज़ बन्द हो जाती
 
 
दिशाएँ शान्त हो जाती थीं
 
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फिर  
 
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माँ मुझे उठाकर
 
माँ मुझे उठाकर
 
 
अपने साथ ले जाती
 
अपने साथ ले जाती
 
 
मुझे रोटी देती
 
मुझे रोटी देती
 
 
मीठी  
 
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सिंकी हुई भूरी रोटी
 
सिंकी हुई भूरी रोटी
 
  
 
और  
 
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आज तुम
 
आज तुम
 
 
सान्ताक्लाज़ बन गए हो
 
सान्ताक्लाज़ बन गए हो
 
 
रूई से तुम्हारे बाल, तुम्हारी दाढ़ी
 
रूई से तुम्हारे बाल, तुम्हारी दाढ़ी
 
 
और तुम ख़ुद बर्फ़
 
और तुम ख़ुद बर्फ़
 
  
 
तुम्हारी आँखों में अतीत
 
तुम्हारी आँखों में अतीत
 
 
सपने-सा तैरता है
 
सपने-सा तैरता है
 
 
तुम्हें याद आते हैं  वे दिन
 
तुम्हें याद आते हैं  वे दिन
 
 
मेरे बचपन की वे बातें
 
मेरे बचपन की वे बातें
 
 
हमारा छोटा-सा घर
 
हमारा छोटा-सा घर
 
 
सिंकी हुई रोटी
 
सिंकी हुई रोटी
 
 
और माँ
 
और माँ
 
  
 
तुम्हारी दॄष्टि चिड़िया-सी
 
तुम्हारी दॄष्टि चिड़िया-सी
 
 
फुदकती फिरती है
 
फुदकती फिरती है
 
 
ढूँढती हुई कुछ
 
ढूँढती हुई कुछ
 
  
 
पर
 
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न अब वे दिन हैं
 
न अब वे दिन हैं
 
 
न घर है
 
न घर है
 
 
न सिंकी हुई रोटी
 
न सिंकी हुई रोटी
 
 
और न माँ
 
और न माँ
  
  
1977 में रचित
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'''1977 में रचित'''

01:39, 13 मई 2010 का अवतरण

प्रिय पिता!
याद हैं मुझे
अपने बचपन के वे दिन

मैं
खेला करता था
तुम्हारे नर्म, मुलायम
रेशमी, काले बालों से
सख़्त, चुभती हुई काली दाढ़ी से
अपना कोमल चेहरा रगड़ता था बार-बार

मैं सोचता था देखकर
तुम्हारे काले बाल
सफ़ेद क्यों नहीं हैं वे
सान्ताक्लाज़ के बालों की तरह
रूई की तरह
बर्फ़ की तरह
सफ़ेद

मैं
बार-बार तुमसे पूछा करता था
बाबा ! तुम सान्ताक्लाज़ कब बनोगे ?
और तुम मुस्करा देते थे धीरे से
किसी मीठी कल्पना में खोकर
या फिर
माँ को बुलाकर
मेरा प्रश्न दोहरा देते थे

हज़ारों
घंटियों के बजने की
आवाज़-सी उसकी हँसी से
गूँजने लगती थीं चारों दिशाएँ परस्पर

मुझे याद है
तुम मुझे गोद में भरकर
ऊपर उछालने लगते थे
माँ डर जाती
घंटियों की आवाज़ बन्द हो जाती
दिशाएँ शान्त हो जाती थीं

फिर
माँ मुझे उठाकर
अपने साथ ले जाती
मुझे रोटी देती
मीठी
सिंकी हुई भूरी रोटी

और
आज तुम
सान्ताक्लाज़ बन गए हो
रूई से तुम्हारे बाल, तुम्हारी दाढ़ी
और तुम ख़ुद बर्फ़

तुम्हारी आँखों में अतीत
सपने-सा तैरता है
तुम्हें याद आते हैं वे दिन
मेरे बचपन की वे बातें
हमारा छोटा-सा घर
सिंकी हुई रोटी
और माँ

तुम्हारी दॄष्टि चिड़िया-सी
फुदकती फिरती है
ढूँढती हुई कुछ

पर
न अब वे दिन हैं
न घर है
न सिंकी हुई रोटी
और न माँ


1977 में रचित