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:जाने किस छल-पीड़ा से
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:व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,
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:ज्यों बरस-बरस पड़ने को
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:हों उमड़-उमड़ उठते घन! 
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अधरों पर मधुर अधर धर,
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बस एक मधुर इच्छा पर
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अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन!
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:पुलकों से लद जाता तन,
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जाने किस छल-पीड़ा से<br>
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रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,<br>
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फिरतीं नीरव नयनों में<br>
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ये आधी, अति इच्छाएँ<br>
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रह-रह मिथ्या-पीड़ा से<br>
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दुखता-दुखता मेरा मन<br>
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मिथ्या ही बतला देती<br>
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मिथ्या का रे मिथ्यापन ! <br><br>
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(फरवरी,1932)
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10:48, 13 मई 2010 के समय का अवतरण

जाने किस छल-पीड़ा से
व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,
ज्यों बरस-बरस पड़ने को
हों उमड़-उमड़ उठते घन!
अधरों पर मधुर अधर धर,
कहता मृदु स्वर में जीवन--
बस एक मधुर इच्छा पर
अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन!
पुलकों से लद जाता तन,
मुँद जाते मद से लोचन;
तत्क्षण सचेत करता मन--
ना, मुझे इष्ट है साधन!
इच्छा है जग का जीवन,
पर साधन आत्मा का धन;
जीवन की इच्छा है छल,
इच्छा का जीवन जीवन।
फिरतीं नीरव नयनों में
छाया-छबियाँ मन-मोहन,
फिर-फिर विलीन होने को
ज्यों घिर-घिर उठते हों घन।
ये आधी, अति इच्छाएँ
साधन में बाधा-बंधन;
साधन भी इच्छा ही है,
सम-इच्छा ही रे साधन।
रह-रह मिथ्या-पीड़ा से
दुखता-दुखता मेरा मन,
मिथ्या ही बतला देती
मिथ्या का रे मिथ्यापन!

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२