"चाँदनी / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
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:वह एक बूँद संसृति की | :वह एक बूँद संसृति की | ||
:नभ के विशाल करतल पर, | :नभ के विशाल करतल पर, | ||
− | डूबे असीम-सुखमा में | + | :डूबे असीम-सुखमा में |
− | सब ओर-छोर के अन्तर। | + | :सब ओर-छोर के अन्तर। |
− | + | झंकार विश्व-जीवन की | |
− | + | हौले हौले होती लय | |
− | + | वह शेष, भले ही अविदित, | |
− | + | वह शब्द-मुक्त शुचि-आशय। | |
− | वह एक अनन्त-प्रतीक्षा | + | :वह एक अनन्त-प्रतीक्षा |
− | नीरव, अनिमेष विलोचन, | + | :नीरव, अनिमेष विलोचन, |
− | अस्पृश्य, अदृश्य विभा वह, | + | :अस्पृश्य, अदृश्य विभा वह, |
− | जीवन की साश्रु-नयन क्षण। | + | :जीवन की साश्रु-नयन क्षण। |
− | + | वह शशि-किरणों से उतरी | |
− | + | चुपके मेरे आँगन पर, | |
− | + | उर की आभा में खोई, | |
− | + | अपनी ही छवि से सुन्दर। | |
− | वह खड़ी दृगों के सम्मुख | + | :वह खड़ी दृगों के सम्मुख |
− | सब रूप, रेख रँग ओझल | + | :सब रूप, रेख रँग ओझल |
− | अनुभूति-मात्र-सी उर में | + | :अनुभूति-मात्र-सी उर में |
− | आभास शान्त, शुचि, उज्जवल! | + | :आभास शान्त, शुचि, उज्जवल! |
− | + | वह है, वह नहीं, अनिर्वच’, | |
− | + | जग उसमें, वह जग में लय, | |
− | + | साकार-चेतना सी वह, | |
− | + | जिसमें अचेत जीवाशय! | |
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२ | रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२ | ||
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12:26, 13 मई 2010 का अवतरण
नीले नभ के शतदल पर
वह बैठी शारद-हासिनि,
मृदु-करतल पर शशि-मुख धर,
नीरव, अनिमिष, एकाकिनि!
वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन
छू लेती अग-जग का मन,
श्यामल, कोमल, चल-चितवन
जो लहराती जग-जीवन!
वह फूली बेला की बन
जिसमें न नाल, दल, कुड्मल,
केवल विकास चिर-निर्मल
जिसमें डूबे दश दिशि-दल।
वह सोई सरित-पुलिन पर
साँसों में स्तब्ध समीरण,
केवल लघु-लघु लहरों पर
मिलता मृदु-मृदु उर-स्पन्दन।
अपनी छाया में छिपकर
वह खड़ी शिखर पर सुन्दर,
है नाच रहीं शत-शत छवि
सागर की लहर-लहर पर।
दिन की आभा दुलहिन बन
आई निशि-निभृत शयन पर,
वह छवि की छुईमुई-सी
मृदु मधुर-लाज से मर-मर।
जग के अस्फुट स्वप्नों का
वह हार गूँथती प्रतिपल,
चिर सजल-सजल, करुणा से
उसके ओसों का अंचल।
वह मृदु मुकुलों के मुख में
भरती मोती के चुम्बन,
लहरों के चल-करतल में
चाँदी के चंचल उडुगण।
वह लघु परिमल के घन-सी
जो लीन अनिल में अविकल,
सुख के उमड़े सागर-सी
जिसमें निमग्न उर-तट-स्थल।
वह स्वप्निल शयन-मुकुल-सी
हैं मुँदे दिवस के द्युति-दल,
उर में सोया जग का अलि,
नीरव जीवन-गुंजन कल!
वह नभ के स्नेह श्रवण में
दिशि का गोपन-सम्भाषण,
नयनों के मौन-मिलन में
प्राणों का मधुर समर्पण!
वह एक बूँद संसृति की
नभ के विशाल करतल पर,
डूबे असीम-सुखमा में
सब ओर-छोर के अन्तर।
झंकार विश्व-जीवन की
हौले हौले होती लय
वह शेष, भले ही अविदित,
वह शब्द-मुक्त शुचि-आशय।
वह एक अनन्त-प्रतीक्षा
नीरव, अनिमेष विलोचन,
अस्पृश्य, अदृश्य विभा वह,
जीवन की साश्रु-नयन क्षण।
वह शशि-किरणों से उतरी
चुपके मेरे आँगन पर,
उर की आभा में खोई,
अपनी ही छवि से सुन्दर।
वह खड़ी दृगों के सम्मुख
सब रूप, रेख रँग ओझल
अनुभूति-मात्र-सी उर में
आभास शान्त, शुचि, उज्जवल!
वह है, वह नहीं, अनिर्वच’,
जग उसमें, वह जग में लय,
साकार-चेतना सी वह,
जिसमें अचेत जीवाशय!
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२