"गांव बचपन का / रामदरश मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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− | + | गाँव बचपन का मुझको बुलाता सदा मुस्कराता हुआ | |
रंग-बिरंगी शहरी तनहाइयों बीच आता हुआ | रंग-बिरंगी शहरी तनहाइयों बीच आता हुआ | ||
− | तंग | + | तंग गलियाँ, खुले रास्ते, खेत खलिहान, अमराइयाँ |
− | मैं | + | मैं गुज़रता था हमजोलियों संग हँसता-हँसाता हुआ |
जब कभी भी अकेला हुआ तो लगा, मैं अकेला नहीं | जब कभी भी अकेला हुआ तो लगा, मैं अकेला नहीं | ||
अपनी फसल से था बात करता उन्ही में नहाता हुआ | अपनी फसल से था बात करता उन्ही में नहाता हुआ | ||
− | पेट खाली थे लेकिन दिलों में उमंगों की थी | + | पेट खाली थे लेकिन दिलों में उमंगों की थी आँधियाँ |
हर महीना था साथी-सा चलता हमें थपथपाता हुआ | हर महीना था साथी-सा चलता हमें थपथपाता हुआ | ||
− | रूठ जाते थे हम खेल ही खेल में साधकर | + | रूठ जाते थे हम खेल ही खेल में साधकर चुप्पियाँ |
− | प्यार फिर-फिर बुलाता था हमको | + | प्यार फिर-फिर बुलाता था हमको ख़ुशी से रुलाता हुआ |
भूख थी प्यास थी जाने कितनी मगर कोई दहशत न थी | भूख थी प्यास थी जाने कितनी मगर कोई दहशत न थी | ||
− | + | वक़्त चलता था सबको समेटे हुए, गीत गाता हुआ | |
− | + | माँ की आँखों में ख़्वाब कितने उमड़ते हमारे लिए | |
कंठ में था पिता के, कोई दर्द-सा थरथराता हुआ | कंठ में था पिता के, कोई दर्द-सा थरथराता हुआ | ||
− | कितनी | + | कितनी ख़ुशबू थी मिट्टी की, गाती बगीचे के बाज़ार में |
− | उसमें | + | उसमें हँसता था घर अपने आँगन का उत्सव मनाता हुआ |
− | पूछता था कुशल क्षेम घर का ठहरकर समय राह में | + | पूछता था कुशल-क्षेम घर का ठहरकर समय राह में |
− | दीखता था अगर कोई भटका | + | दीखता था अगर कोई भटका मुसाफ़िर-सा जाता हुआ |
− | रंग फैले थे कितने | + | रंग फैले थे कितने फ़िजाओं के, घर से मदरसे तलक |
− | घाम में | + | घाम में छाँह थी, छाँह में घाम था गुनगुनाता हुआ |
− | मानता | + | मानता हूँ कि अब वो नहीं है, न जाने कहाँ खो गया |
− | फिर भी लगता मेरी चेतना में सदा महमहाता हुआ</poem> | + | फिर भी लगता मेरी चेतना में सदा महमहाता हुआ |
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10:06, 14 मई 2010 के समय का अवतरण
गाँव बचपन का मुझको बुलाता सदा मुस्कराता हुआ
रंग-बिरंगी शहरी तनहाइयों बीच आता हुआ
तंग गलियाँ, खुले रास्ते, खेत खलिहान, अमराइयाँ
मैं गुज़रता था हमजोलियों संग हँसता-हँसाता हुआ
जब कभी भी अकेला हुआ तो लगा, मैं अकेला नहीं
अपनी फसल से था बात करता उन्ही में नहाता हुआ
पेट खाली थे लेकिन दिलों में उमंगों की थी आँधियाँ
हर महीना था साथी-सा चलता हमें थपथपाता हुआ
रूठ जाते थे हम खेल ही खेल में साधकर चुप्पियाँ
प्यार फिर-फिर बुलाता था हमको ख़ुशी से रुलाता हुआ
भूख थी प्यास थी जाने कितनी मगर कोई दहशत न थी
वक़्त चलता था सबको समेटे हुए, गीत गाता हुआ
माँ की आँखों में ख़्वाब कितने उमड़ते हमारे लिए
कंठ में था पिता के, कोई दर्द-सा थरथराता हुआ
कितनी ख़ुशबू थी मिट्टी की, गाती बगीचे के बाज़ार में
उसमें हँसता था घर अपने आँगन का उत्सव मनाता हुआ
पूछता था कुशल-क्षेम घर का ठहरकर समय राह में
दीखता था अगर कोई भटका मुसाफ़िर-सा जाता हुआ
रंग फैले थे कितने फ़िजाओं के, घर से मदरसे तलक
घाम में छाँह थी, छाँह में घाम था गुनगुनाता हुआ
मानता हूँ कि अब वो नहीं है, न जाने कहाँ खो गया
फिर भी लगता मेरी चेतना में सदा महमहाता हुआ