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सो गई है मनुजता की संवेदना
गीत के रूप में भैरवी गाइए
उनको रखने को गंगाजली चाहिए।
राजमहलों के कालीन की कोख कालीनों मेंखो गयाकितनी रंभाओं का है वह कुंआरा स्र्दनरुदन
देह की हाट में भूख की त्रासदी
और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन
अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।
भूख के प'श्न प्रश्न हल कर रहा जो , उसेहै जरूरत नहीं , कोई कुछ ज्ञान देकर्म से हो विमुख व्यक्ति , गीता रटे
और चाहे कि युग उसको सम्मान दे
ऐसे भूले पथिक को , पतित पंक सेखींच कर , कर्म के पंथ पर लाइए।
कोई भी तो नहीं दूध का है धुला
सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये
इनमें ढल जाइए या चले आइए।
 -डॉ॰ जगदीश व्योम</poem>
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