"गत्यवरोध / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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+ | युग-श्रृंगार। | ||
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+ | खींच-सी ली गई बरबस | ||
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+ | कुढ़न-कुंठा-सा कुहासा, | ||
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+ | धुंध का चौफेर घेरा, | ||
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+ | दिये-जैसा धुएँ से वह घिरा, | ||
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+ | गहरे कुएँ में है वह दिपदिपाता, | ||
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+ | स्वयं अपनी साँस खाता। | ||
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+ | एक घुग्घू, | ||
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+ | पच्छिमी छाया-छपे बन के | ||
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+ | गिरे; बिखरे परों को खोंस | ||
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+ | बैठा है बकुल की डाल पर, | ||
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+ | गोले दृगों पर धूप का चश्मा लगाकर- | ||
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+ | प्रात का अस्तित्व अस्वीकार रने के लिए | ||
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+ | पूरी तरह तैयार होकर। | ||
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+ | और, घुघुआना शुरू उसने किया है- | ||
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+ | गुरू उसका वेणुवादक वही | ||
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+ | जिसकी जादुई धुन पर नगर कै | ||
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+ | सभी चूहे निकल आए थे बिलों से- | ||
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+ | गुरू गुड़ था किन्तु चेला शकर निकाला- | ||
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+ | साँप अपनी बाँबियों को छोड़ | ||
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+ | बाहर आ गए हैं, | ||
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+ | भूख से मानो बहुत दिन के सताए, | ||
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+ | और जल्दी में, अँधेरे में, उन्होंने | ||
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+ | रात में फिरती छछूँदर के दलों को | ||
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+ | निगलकर हड़बड़ी में कुछ | ||
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+ | परम गति प्राप्त करने जा रहे हैं, | ||
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+ | औ' जिन्होंने अचकचाकर, | ||
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+ | वे नयन की जोत खोकर, | ||
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+ | पेट धरती में रगड़ते, | ||
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+ | राह अपनी बाँबियों की ढूँढते हैं, | ||
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+ | किन्तु ज्यादातर छछूँदर छटपटाती-अधमरी | ||
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+ | मुँह में दबाए हुए | ||
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+ | किंकर्तव्यविमूढ़ बने पड़े हैं; | ||
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+ | और घुग्घू को नहीं मालूम | ||
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+ | वह अपने शिकारी या शिकारों को | ||
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+ | समय के अंध गत्यवरोध से कैसे निकाले, | ||
+ | |||
+ | किस तरह उनको बचा ले। |
12:28, 22 मई 2010 के समय का अवतरण
बीतती जब रात,
करवट पवन लेता
गगन की सब तारिकाएँ
मोड़ लेती बाग,
उदयोन्मुखी रवि की
बाल-किरणें दौड़
ज्योतिर्मान करतीं
क्षितिज पर पूरब दिशा का द्वार,
मुर्ग़ मुंडेर पर चढ़
तिमिर को ललकारता,
पर वह न मुड़कर देखता,
धर पाँव सिर पर भागता,
फटकार कर पर
जाग दल के दल विहग
कल्लोल से भूगोल और खगोल भरते,
जागकर सपने निशा के
चाहते होना दिवा-साकार,
युग-श्रृंगार।
कैसा यह सवेरा!
खींच-सी ली गई बरबस
रात की ही सौर जैसे और आगे-
कुढ़न-कुंठा-सा कुहासा,
पवन का दम घुट रहा-सा,
धुंध का चौफेर घेरा,
सूर्य पर चढ़कर किसी ने
दाब-जैसा उसे नीचे को दिया है,
दिये-जैसा धुएँ से वह घिरा,
गहरे कुएँ में है वह दिपदिपाता,
स्वयं अपनी साँस खाता।
एक घुग्घू,
पच्छिमी छाया-छपे बन के
गिरे; बिखरे परों को खोंस
बैठा है बकुल की डाल पर,
गोले दृगों पर धूप का चश्मा लगाकर-
प्रात का अस्तित्व अस्वीकार रने के लिए
पूरी तरह तैयार होकर।
और, घुघुआना शुरू उसने किया है-
गुरू उसका वेणुवादक वही
जिसकी जादुई धुन पर नगर कै
सभी चूहे निकल आए थे बिलों से-
गुरू गुड़ था किन्तु चेला शकर निकाला-
साँप अपनी बाँबियों को छोड़
बाहर आ गए हैं,
भूख से मानो बहुत दिन के सताए,
और जल्दी में, अँधेरे में, उन्होंने
रात में फिरती छछूँदर के दलों को
धर दबाया है-
निगलकर हड़बड़ी में कुछ
परम गति प्राप्त करने जा रहे हैं,
औ' जिन्होंने अचकचाकर,
भूल अपनी भाँप मुँह फैला दिया था,
वे नयन की जोत खोकर,
पेट धरती में रगड़ते,
राह अपनी बाँबियों की ढूँढते हैं,
किन्तु ज्यादातर छछूँदर छटपटाती-अधमरी
मुँह में दबाए हुए
किंकर्तव्यविमूढ़ बने पड़े हैं;
और घुग्घू को नहीं मालूम
वह अपने शिकारी या शिकारों को
समय के अंध गत्यवरोध से कैसे निकाले,
किस तरह उनको बचा ले।