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गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक | गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक |
12:35, 24 मई 2010 के समय का अवतरण
मन
हो इतना कुशल
गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक
चढ़ना उतरना
बहना होना
हँसना रोना इसलिए
कि ऐसा जीवन
हो इतना चंचल
गुजर तो फूटे
हँसी की धार
हर दो आँख कल कल
डर तो डरे जो कुछ भी जड़
प्रहरियों की सुरक्षा में भी
डरे अकड़
खिल हर दूसरा खिले साथ
बढ़ बढ़े हर प्रेमी की नाक
हर बात की बात
बढ़े हर जन
ऐसा ही बन
कुछ बनना ही है
तो ऐसा ही बन।