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"आज कुसुम कुम्हलाये / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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(रवीन्द्रनाथ के प्रति)
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आज कुसुम कुम्हलाये
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कल ही तो मैंने इनसे थे अपने केश सजाये
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मेरे फूल न तुम कुम्हलाना
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प्रिय! पतझर में भी मुस्काना
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खिलना, बस खिलते ही जाना, जग से आँख चुराये
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देख न सके तुम्हें मधुबाला
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पी न सको अधरों की हाला
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सौरभ बन पथ में उड़ जाना, कोई जान न पाये
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पी चम्पक-कपोल-मधु जी भर
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झूम अलक में, पलक चूमकर
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बन जाना अधरों में मर्मर, जब प्रेयसी लजाये
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छू रज-कण प्रिय-पथ का प्यारा
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चरणों का बन जाय सहारा
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युग-युग तक संगीत तुम्हारा, मिलन रागिनी गाये
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आज कुसुम कुम्हलाये
  
किसे पुकार रहा तू माँझी! धूमिल संध्या-वेला में
 
सागर का है तीर, खडा हूँ संगीहीन अकेला, मैं
 
डूब चुका रवि अरुण, थकी लहरें, उदास है सांध्य-पवन
 
तारक-मणियों से ज्योतित नीलम-परियों के राजभवन
 
मधुवन पीछे लहराता है शांत मरुस्थल के उर में
 
आगे तरल जलधि-प्रांगण रोता विषाद-पूरित सुर में
 
. . .
 
शिथिल बाँह, पग काँप रहे, कंठ-स्वर रुँधने को आया
 
झुकी कमर, जड़-काष्ट उँगलियाँ, जीर्ण त्वचा, जर्जर काया
 
समझा, जीवन की संध्या में आज पुकार रहा किसको
 
कौन तरुण वह, सौंप चला जायेगा यह नौका जिसको
 
आ जा माँझी! छाया-सा चुपचाप उतर निर्जन तट पर
 
इन लहरों से मैं खेलूँगा अब तेरी नौका लेकर
 
  
1941
 
 
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00:56, 25 मई 2010 का अवतरण


आज कुसुम कुम्हलाये
कल ही तो मैंने इनसे थे अपने केश सजाये
मेरे फूल न तुम कुम्हलाना
प्रिय! पतझर में भी मुस्काना
खिलना, बस खिलते ही जाना, जग से आँख चुराये
देख न सके तुम्हें मधुबाला
पी न सको अधरों की हाला
सौरभ बन पथ में उड़ जाना, कोई जान न पाये
पी चम्पक-कपोल-मधु जी भर
झूम अलक में, पलक चूमकर
बन जाना अधरों में मर्मर, जब प्रेयसी लजाये
छू रज-कण प्रिय-पथ का प्यारा
चरणों का बन जाय सहारा
युग-युग तक संगीत तुम्हारा, मिलन रागिनी गाये
आज कुसुम कुम्हलाये