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"जगत-घट को विष से कर पूर्ण / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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जगत-घट को विष से कर पूर्ण

किया जिन हाथों ने तैयार,

लगाया उसके मुख पर, नारि,

तुम्‍हारे अधरों का मधु सार,


नहीं तो देता कब का देता तोड़
पुरुष-विष-घट यह ठोकर मार,
इसी मधु को लेने को स्‍वाद
हलाहल पी जाता संसार!