"नेताओं को न्यौता! / शैलेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) छो ("नेताओं को न्यौता! / शैलेन्द्र" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 74: | पंक्ति 74: | ||
और युवकगण जिनकी रग में गरम ख़ून है, | और युवकगण जिनकी रग में गरम ख़ून है, | ||
रह-रह उफ़ न उबल पड़ता है, नया ख़ून है । | रह-रह उफ़ न उबल पड़ता है, नया ख़ून है । | ||
+ | |||
+ | घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी, | ||
+ | बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी, | ||
+ | हेच काय रे कानाफूसी यह फैल जाएगी, | ||
+ | हर्ष क्षोभ की लहर मुखों पर दौड़ जाएगी । | ||
+ | |||
+ | हाँ, देखो आ गया ध्यान बन आए न संकट, | ||
+ | बस्ती के अधिकांश लोग हैं बिलकुल मुँहफट, | ||
+ | ऊँच-नीच का जैसे उनको ज्ञान नहीं है, | ||
+ | नेताओं के प्रति अब वह सम्मान नहीं है । | ||
+ | |||
+ | उनका कहना है, यह कैसी आज़ादी है, | ||
+ | वही ढाक के तीन पात हैं, बरबादी है, | ||
+ | तुम किसान-मज़दूरों पर गोली चलवाओ, | ||
+ | और पहन लो खद्दर, देशभक्त कहलाओ । | ||
+ | |||
+ | तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो, | ||
+ | तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छाँटो । | ||
+ | हमें न छल पाएगी यह कोरी आज़ादी, | ||
+ | उठ री, उठ, मज़दूर-किसानों की आबादी । | ||
+ | |||
+ | हो सकता है, कड़वी-खरी कहें वे तुमसे, | ||
+ | उन्हें ज़रा मतभेद हो गया है अब तुमसे, | ||
+ | लेकिन तुम सहसा उन पर गुस्सा मत होना, | ||
+ | लाएँगे वे जनता का ही रोना-धोना । | ||
+ | |||
+ | वे सब हैं जोशीले, किन्तु अशिष्ट नहीं हैं, | ||
+ | करें तुमसे बैर, उन्हें यह इष्ट नहीं है, | ||
+ | वे तो दुनिया बदल डालने को निकले हैं, | ||
+ | हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी, सभी मिले हैं । | ||
+ | |||
+ | फिर, जब दावत दी है तो सत्कार करेंगे, | ||
+ | ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे, | ||
+ | हाँ, हो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना, | ||
+ | माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना । |
22:06, 28 मई 2010 के समय का अवतरण
लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मज़दूरों का,
हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मज़दूरों का;
एक बार इन गन्दी गलियों में भी आओ,
घूमे दिल्ली-शिमला, घूम यहाँ भी जाओ!
जिस दिन आओ चिट्ठी भर लिख देना हमको
हम सब लेंगे घेर रेल के इस्टेशन को;
'इन्क़लाब' के नारों से, जय-जयकारों से--
ख़ूब करेंगे स्वागत फूलों से, हारों से !
दर्शन के हित होगी भीड़, न घबरा जाना,
अपने अनुगामी लोगों पर मत झुंझलाना;
हाँ, इस बार उतर गाड़ी से बैठ कार पर
चले न जाना छोड़ हमें बिरला जी के घर !
चलना साथ हमारे वरली की चालों में,
या धारवि के उन गंदे सड़ते नालों में--
जहाँ हमारी उन मज़दूरों की बस्ती है,
जिनके बल पर तुम नेता हो, यह हस्ती है !
हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
सुकुमारी बम्बई पली है जिस दुनिया में,
यह बम्बई, आज है जो जन-जन को प्यारी,
देसी - परदेसी के मन की राजदुलारी !
हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
नवयुवती बम्बई पली है जिस दुनिया में,
किन्तु, न इस दुनिया को तुम ससुराल समझना,
बन दामाद न अधिकारों के लिए उलझना ।
हमसे जैसा बने, सब सत्कार करेंगे--
ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे,
हाँ, हो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना,
माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना।
जैसे ही हम तुमको ले पहुँचेंगे घर में,
हलचल सी मच जाएगी उस बस्ती भर में,
कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए--
गांधी टोपी वाले वीर विजेता आए ।
खद्दर धारी, आज़ादी पर मरने वाले
गोरों की फ़ौज़ों से सदा न डरने वाले
वे नेता जो सदा जेल में ही सड़ते थे
लेकिन जुल्मों के ख़िलाफ़ फिर भी लड़ते थे ।
वे नेता, बस जिनके एक इशारे भर से--
कट कर गिर सकते थे शीश अलग हो धड़ से,
जिनकी एक पुकार ख़ून से रंगती धरती,
लाशों-ही-लाशों से पट जाती यह धरती ।
शासन की अब बागडोर जिनके हाथों में,
है जनता का भाग्य आज जिनके हाथों में ।
कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए--
गांधी टोपी वाले शासक नेता आए ।
घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,
बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,
पंजों पर हो खड़े, उठा बदन, उझक कर,
लोग देखने आवेंगे धक्का-मुक्की कर ।
टुकुर-मुकुर ताकेंगे तुमको बच्चे सारे,
शंकर, लीला, मधुकर, धोंडू, राम पगारे,
जुम्मन का नाती करीम, नज्मा बुद्धन की,
अस्सी बरसी गुस्सेवर बुढ़िया अच्छन की ।
वे सब बच्चे पहन चीथड़े, मिट्टी साने,
वे बूढ़े-बुढ़िया, जिनके लद चुके ज़माने,
और युवकगण जिनकी रग में गरम ख़ून है,
रह-रह उफ़ न उबल पड़ता है, नया ख़ून है ।
घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,
बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,
हेच काय रे कानाफूसी यह फैल जाएगी,
हर्ष क्षोभ की लहर मुखों पर दौड़ जाएगी ।
हाँ, देखो आ गया ध्यान बन आए न संकट,
बस्ती के अधिकांश लोग हैं बिलकुल मुँहफट,
ऊँच-नीच का जैसे उनको ज्ञान नहीं है,
नेताओं के प्रति अब वह सम्मान नहीं है ।
उनका कहना है, यह कैसी आज़ादी है,
वही ढाक के तीन पात हैं, बरबादी है,
तुम किसान-मज़दूरों पर गोली चलवाओ,
और पहन लो खद्दर, देशभक्त कहलाओ ।
तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो,
तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छाँटो ।
हमें न छल पाएगी यह कोरी आज़ादी,
उठ री, उठ, मज़दूर-किसानों की आबादी ।
हो सकता है, कड़वी-खरी कहें वे तुमसे,
उन्हें ज़रा मतभेद हो गया है अब तुमसे,
लेकिन तुम सहसा उन पर गुस्सा मत होना,
लाएँगे वे जनता का ही रोना-धोना ।
वे सब हैं जोशीले, किन्तु अशिष्ट नहीं हैं,
करें तुमसे बैर, उन्हें यह इष्ट नहीं है,
वे तो दुनिया बदल डालने को निकले हैं,
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी, सभी मिले हैं ।
फिर, जब दावत दी है तो सत्कार करेंगे,
ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे,
हाँ, हो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना,
माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना ।