"हो गया क्या देश के सबसे सुनहले दीप का निर्वाण / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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+ | वह जगा क्या जगमगया देश का | ||
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+ | ::::::वह ला क्या मर्दितों ने क्रांति की | ||
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+ | वह हँसा तो मृम मरुस्थल में चला | ||
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+ | वह हँसा तो क़ौम के रौशन भविष्यत | ||
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+ | ::::::वह हँसा तो उड़ उमंगों ने किया | ||
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+ | :::::::फिर से नया श्रृंगार, | ||
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+ | वह हँसा तो हँस पड़ा देश का | ||
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+ | :::रूठा हुआ इतिहास, | ||
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+ | :::::::को न कोई ठौर, | ||
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+ | ::::::वह हँसा तो हिचकिचाहट-भीती-भ्रम का | ||
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+ | वह उठा एक लौ में बंद होकर | ||
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+ | :::आ गई ज्यों भोर, | ||
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+ | वह उठा तो उठ गई सब देश भर की | ||
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+ | :::आँख उनकी ओर, | ||
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+ | :::::::अँगराइयाँ ले साथ, | ||
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+ | वह उठा तो उठ पड़े युग-युग दबे | ||
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+ | :::दुखिया, दलित, कमजोर | ||
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+ | ::::::वह उठा तो उठ पड़ीं उत्साह की | ||
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+ | :::::::लहरें दृगों के बीच | ||
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+ | ::::::वह उठा तो झुक गए अन्याय, | ||
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+ | ::::::अत्याचार के अभिमान, | ||
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+ | :::हो गया क्या देश के | ||
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+ | ::::::सबसे प्रभामय दीप का | ||
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+ | :::::::निर्वाण! | ||
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+ | वह न चाँदी का, न सोने का न कोंई | ||
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+ | :::धातु का अनमोल, | ||
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+ | थी चढ़ी उस पर न हीरे और मोती | ||
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+ | :::की सजीली खोल, | ||
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+ | ::::::मृत्तिका कि उपमा | ||
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+ | :::::::सादगी थी आप, | ||
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+ | :::किन्तु उसका मान सारा स्वर्ग सकता | ||
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+ | :::था कभी क्या तोल? | ||
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+ | ::::::ताज शाहों के अगर उसने झुकाए | ||
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+ | :::::::तो तअज्जुब कौन, | ||
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+ | ::::::कर सका वह निम्नतम, कुचले हुओं का | ||
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+ | :::::::उच्चमतम उत्थान, | ||
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+ | :::हो गया था देश के | ||
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+ | ::::::सबसे मनस्वी दीप का | ||
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+ | :::::::निवार्ण! | ||
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+ | वह चमकता था, मगर था कब लिए, | ||
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+ | :::तलवार पानीदार, | ||
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+ | वह दमकता था, मगर अज्ञात थे | ||
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+ | :::उसको सदा हथियार, | ||
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+ | ::::::एक अंजलि स्नेह की थी तरलता में | ||
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+ | :::::::स्नेह के अनुरूप, | ||
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+ | किन्तु उसकी धार में था डूब सकता | ||
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+ | :::देश क्या, संसार; | ||
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+ | :::::::स्नेह में डूबे हुए ही तो हिफ़ाज़त | ||
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+ | :::::::से पहुँते पार, | ||
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+ | ::::::स्नेह में जलते हुए ही तो कर सके हैं | ||
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+ | :::::::ज्योति-जीवनदान, | ||
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+ | :::हो गया क्या देश के | ||
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+ | ::::::सबसे तपस्वी दीप का | ||
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+ | :::::::निर्वाण! | ||
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+ | स्नेह में डूबा हुआ था हाथ से | ||
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+ | :::काती रुई का सूत, | ||
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+ | थी बिखरती देश भर के घर-डगर में | ||
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+ | :::एक आभा पूत, | ||
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+ | ::::::रोशनी सबके लिए थी, एक को भी | ||
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+ | :::::::थी नहीं अंगार, | ||
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+ | फ़र्क अपने औ' पराए में न समझा | ||
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+ | :::शान्ति का वह दूत, | ||
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+ | ::::::चाँद-सूरज से प्रकाशित एक से हैं | ||
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+ | :::::::झोंपड़ी-प्रसाद, | ||
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+ | :::एक-सी सबको विभा देते जलाते | ||
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+ | :::::::जो कि अपने प्राण, | ||
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+ | :::हो गया क्या देश के | ||
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+ | ::::::सबसे यशस्वी दीप का | ||
+ | |||
+ | :::::::निर्वाण! | ||
+ | |||
+ | |||
+ | ज्योति में उसकी हुए हम यात्रा | ||
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+ | :::के लिए तैयार, | ||
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+ | की उसी के आधार हमने तिमिर-गिरि | ||
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+ | :::घाटियाँ भी पार, | ||
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+ | ::::::हम थके माँदे कभी बैठे, कभी | ||
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+ | :::::::पीछे चले भी लौट, | ||
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+ | किन्तु वह बढ़ता रहा आगे सदा | ||
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+ | :::साहस बना साकार, | ||
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+ | ::::::आँधियाँ आई, घटा छाई, गिरा | ||
+ | |||
+ | भी वज्र बारंबार, | ||
+ | |||
+ | ::::::पर लगता वह सदा था एक- | ||
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+ | :::::::अभ्युत्थान! अभ्युत्थान! | ||
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+ | हो गया क्या देश के | ||
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+ | ::::::सबसे अचंचल दीप का | ||
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+ | :::::::निर्वाण! | ||
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+ | |||
+ | लक्ष्य उसका था नहीं कर दे महज़ | ||
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+ | :::इस देश को आज़ाद, | ||
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+ | चाहता वह था कि दुनिया आज की | ||
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+ | :::नाशाद हो फिर शाद, | ||
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+ | ::::::नाचता उसके दृगों में था नए | ||
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+ | ::::::मानव-जगत का ख़्वाब, | ||
+ | |||
+ | कर गया उसको कौन औ' | ||
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+ | :::किस वास्ते बर्बाद, | ||
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+ | ::::::बुझ गया वह दीप जिसकी थी नहीं | ||
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+ | :::::::जीवन-कहानी पूर्ण, | ||
+ | |||
+ | ::::::वह अधूरी क्या रही, इंसानियत का | ||
+ | |||
+ | :::::::रुक गया आख्यान। | ||
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+ | :::हो गया क्या देश के | ||
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+ | ::::::सबसे प्रगतिमय दीप का | ||
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+ | :::::::निर्वाण! | ||
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+ | विष-घृणा से देश का वातावरण | ||
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+ | :::पहले हुआ सविकार, | ||
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+ | खू़न की नदियाँ बहीं, फिर बस्तियाँ | ||
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+ | :::जलकर गई हो क्षार, | ||
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+ | ::::::जो दिखता था अँधेरे में प्रलय के | ||
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+ | :::::::प्यार की ही राइ, | ||
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+ | बच न पाया, हाय, वह भी इस घृणा का | ||
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+ | :::क्रूर, निंद्य प्रहार, | ||
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+ | ::::::सौ समस्याएँ खड़ी हैं, एक का भी | ||
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+ | :::::::हल नहीं है पास, | ||
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+ | ::::::क्या गया है रूठ प्यारे देश भारत- | ||
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+ | :::::::वर्ष से भगवान! | ||
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+ | हो गया क्या देश के | ||
+ | |||
+ | :::सबसे जरूरी दीप का | ||
::::::निर्वाण! | ::::::निर्वाण! |
10:37, 30 मई 2010 के समय का अवतरण
हो गया क्या देश के
- सबसे सुनहले दीप का
- निर्वाण!
1
वह जगा क्या जगमगया देश का
- तम से घिरा प्रसाद,
वह जगा क्या था जहाँ अवसाद छाया,
- छा गया अह्लाद,
- वह जगा क्या बिछ गई आशा किरण
- की चेतना सब ओर,
वह जगा क्या स्वप्न से सूने हृदय-
- मन हो गए आबाद
- वह जगा क्या ऊर्ध्व उन्नति-पथ हुआ
- आलोक का आधार,
- वह जगा क्या कि मानवों का स्वर्ग ने
- उठकर किया आह्वान,
हो गया क्या देश के
- सबसे सुनहले दीप का
- निर्वाण!
वह जला क्या जग उठी इस जाति की
- सोई हुई तक़दीर,
वह जला क्या दासता की गल गई
- बन्धन बती जंजीर,
- वह जला क्या जग उठी आज़ाद होने
- की लगन मज़बूत
वह जला क्या हो गई बेकार कारा-
- गार की प्राचीर,
- वह जला क्या विश्व ने देखा हमें
- आश्चर्य से दृग खोल,
- वह ला क्या मर्दितों ने क्रांति की
- देखी ध्वाजा अम्लान,
- हो गया क्या देश के
- सबसे दमके दीप का
- निर्वाण!
वह हँसा तो मृम मरुस्थल में चला
- मधुमास-जीवन-श्वास,
वह हँसा तो क़ौम के रौशन भविष्यत
- का हुआ विश्वास,
- वह हँसा तो उड़ उमंगों ने किया
- फिर से नया श्रृंगार,
वह हँसा तो हँस पड़ा देश का
- रूठा हुआ इतिहास,
- वह हँसा तो जड़ उमंगों ने किया
- को न कोई ठौर,
- वह हँसा तो हिचकिचाहट-भीती-भ्रम का
- हो गया अवसान,
- हो गया क्या देश के
- सबसे चमकते दीप का
- निर्वाण!
वह उठा एक लौ में बंद होकर
- आ गई ज्यों भोर,
वह उठा तो उठ गई सब देश भर की
- आँख उनकी ओर,
- वह उठी तो उठ वड़ीं सदियाँ विगत
- अँगराइयाँ ले साथ,
वह उठा तो उठ पड़े युग-युग दबे
- दुखिया, दलित, कमजोर
- वह उठा तो उठ पड़ीं उत्साह की
- लहरें दृगों के बीच
- वह उठा तो झुक गए अन्याय,
- अत्याचार के अभिमान,
- हो गया क्या देश के
- सबसे प्रभामय दीप का
- निर्वाण!
वह न चाँदी का, न सोने का न कोंई
- धातु का अनमोल,
थी चढ़ी उस पर न हीरे और मोती
- की सजीली खोल,
- मृत्तिका कि उपमा
- सादगी थी आप,
- किन्तु उसका मान सारा स्वर्ग सकता
- था कभी क्या तोल?
- ताज शाहों के अगर उसने झुकाए
- तो तअज्जुब कौन,
- कर सका वह निम्नतम, कुचले हुओं का
- उच्चमतम उत्थान,
- हो गया था देश के
- सबसे मनस्वी दीप का
- निवार्ण!
वह चमकता था, मगर था कब लिए,
- तलवार पानीदार,
वह दमकता था, मगर अज्ञात थे
- उसको सदा हथियार,
- एक अंजलि स्नेह की थी तरलता में
- स्नेह के अनुरूप,
किन्तु उसकी धार में था डूब सकता
- देश क्या, संसार;
- स्नेह में डूबे हुए ही तो हिफ़ाज़त
- से पहुँते पार,
- स्नेह में जलते हुए ही तो कर सके हैं
- ज्योति-जीवनदान,
- हो गया क्या देश के
- सबसे तपस्वी दीप का
- निर्वाण!
स्नेह में डूबा हुआ था हाथ से
- काती रुई का सूत,
थी बिखरती देश भर के घर-डगर में
- एक आभा पूत,
- रोशनी सबके लिए थी, एक को भी
- थी नहीं अंगार,
फ़र्क अपने औ' पराए में न समझा
- शान्ति का वह दूत,
- चाँद-सूरज से प्रकाशित एक से हैं
- झोंपड़ी-प्रसाद,
- एक-सी सबको विभा देते जलाते
- जो कि अपने प्राण,
- हो गया क्या देश के
- सबसे यशस्वी दीप का
- निर्वाण!
ज्योति में उसकी हुए हम यात्रा
- के लिए तैयार,
की उसी के आधार हमने तिमिर-गिरि
- घाटियाँ भी पार,
- हम थके माँदे कभी बैठे, कभी
- पीछे चले भी लौट,
किन्तु वह बढ़ता रहा आगे सदा
- साहस बना साकार,
- आँधियाँ आई, घटा छाई, गिरा
भी वज्र बारंबार,
- पर लगता वह सदा था एक-
- अभ्युत्थान! अभ्युत्थान!
हो गया क्या देश के
- सबसे अचंचल दीप का
- निर्वाण!
लक्ष्य उसका था नहीं कर दे महज़
- इस देश को आज़ाद,
चाहता वह था कि दुनिया आज की
- नाशाद हो फिर शाद,
- नाचता उसके दृगों में था नए
- मानव-जगत का ख़्वाब,
कर गया उसको कौन औ'
- किस वास्ते बर्बाद,
- बुझ गया वह दीप जिसकी थी नहीं
- जीवन-कहानी पूर्ण,
- वह अधूरी क्या रही, इंसानियत का
- रुक गया आख्यान।
- हो गया क्या देश के
- सबसे प्रगतिमय दीप का
- निर्वाण!
विष-घृणा से देश का वातावरण
- पहले हुआ सविकार,
खू़न की नदियाँ बहीं, फिर बस्तियाँ
- जलकर गई हो क्षार,
- जो दिखता था अँधेरे में प्रलय के
- प्यार की ही राइ,
बच न पाया, हाय, वह भी इस घृणा का
- क्रूर, निंद्य प्रहार,
- सौ समस्याएँ खड़ी हैं, एक का भी
- हल नहीं है पास,
- क्या गया है रूठ प्यारे देश भारत-
- वर्ष से भगवान!
हो गया क्या देश के
- सबसे जरूरी दीप का
- निर्वाण!