"निर्वेद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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उल्लासों की माया थी। | उल्लासों की माया थी। | ||
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+ | उषा अरुण प्याला भर लाती | ||
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+ | सुरभित छाया के नीचे | ||
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+ | मेरा यौवन पीता सुख से | ||
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+ | अलसाई आँखे मींचे। | ||
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+ | ले मकरंद नया चू पडती | ||
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+ | शरद-प्रात की शेफाली, | ||
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+ | बिखराती सुख ही, संध्या की | ||
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+ | सुंदर अलकें घुँघराली। | ||
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+ | सहसा अधंकार की आँधी | ||
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+ | उठी क्षितिज से वेग भरी, | ||
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+ | हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी | ||
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+ | उद्वेलित मानस लहरी। | ||
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+ | व्यथित हृदय उस नीले नभ में | ||
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+ | छाया पथ-सा खुला तभी, | ||
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+ | अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति | ||
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+ | कर दी तुमने देवि जभी। | ||
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+ | दिव्य तुम्हारी अमर अमिट | ||
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+ | छवि लगी खेलने रंग-रली, | ||
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+ | नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय- | ||
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+ | निकष पर खिंची भली। | ||
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+ | अरुणाचल मन मंदिर की वह | ||
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+ | मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा, | ||
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+ | गी सिखाने स्नेह-मयी सी | ||
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+ | सुंदरता की मृदु महिमा। | ||
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+ | उस दिन तो हम जान सके थे | ||
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+ | सुंदर किसको हैं कहते | ||
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+ | तब पहचान सके, किसके हित | ||
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+ | प्राणी यह दुख-सुख सहते। | ||
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+ | जीवन कहता यौवन से | ||
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+ | "कुछ देखा तूने मतवाले" | ||
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+ | यौवन कहता साँस लिये | ||
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+ | चल कुछ अपना संबल पाले" | ||
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+ | हृदय बन रहा था सीपी सा | ||
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+ | तुम स्वाती की बूँद बनी, | ||
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+ | मानस-शतदल झूम उठा | ||
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+ | जब तुम उसमें मकरंद बनीं। | ||
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+ | तुमने इस सूखे पतझड में | ||
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+ | भर दी हरियाली कितनी, | ||
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+ | मैंने समझा मादकता है | ||
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+ | तृप्ति बन गयी वह इतनी | ||
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+ | विश्व, कि जिसमें दुख की | ||
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+ | आँधी पीडा की लहरी उठती, | ||
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+ | जिसमें जीवन मरण बना था | ||
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+ | बुदबुद की माया नचती। | ||
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+ | वही शांत उज्जवल मंगल सा | ||
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+ | दिखता था विश्वास भरा, | ||
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+ | वर्षा के कदंब कानन सा | ||
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+ | सृष्टि-विभव हो उठा हरा। | ||
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15:54, 24 मार्च 2007 का अवतरण
लेखक: जयशंकर प्रसाद
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उधर प्रभात हुआ प्राची में
मनु के मुद्रित-नयन खुले।
श्रद्धा का अवलंब मिला
फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,
मनु उठ बैठे गदगद होकर
बोले कुछ अनुराग भरे।
"श्रद्धा तू आ गयी भला तो-
पर क्या था मैं यहीं पडा'
वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका
बिखरी चारों ओर घृणा।
आँखें बंद कर लिया क्षोभ से
"दूर-दूर ले चल मुझको,
इस भयावने अधंकार में
खो दूँ कहीं न फिर तुझको।
हाथ पकड ले, चल सकता हूँ-
हाँ कि यही अवलंब मिले,
वह तू कौन? परे हट, श्रद्धे आ कि
हृदय का कुसुम खिले।"
श्रद्धा नीरव सिर सहलाती
आँखों में विश्वास भरे,
मानो कहती "तुम मेरे हो
अब क्यों कोई वृथा डरे?"
जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से
लगे बहुत धीरे कहने,
"ले चल इस छाया के बाहर
मुझको दे न यहाँ रहने।
मुक्त नील नभ के नीचे
या कहीं गुहा में रह लेंगे,
अरे झेलता ही आया हूँ-
जो आवेगा सह लेंगे"
"ठहरो कुछ तो बल आने दो
लिवा चलूँगी तुरंत तुम्हें,
इतने क्षण तक" श्रद्धा बोली-
"रहने देंगी क्या न हमें?"
इडा संकुचित उधर खडी थी
यह अधिकार न छीन सकी,
श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले
उनकी वाणी नहीं रुकी।
"जब जीवन में साध भरी थी
उच्छृंखल अनुरोध भरा,
अभिलाषायें भरी हृदय में
अपनेपन का बोध भरा।
मैं था, सुंदर कुसुमों की वह
सघन सुनहली छाया थी,
मलयानिल की लहर उठ रही
उल्लासों की माया थी।
उषा अरुण प्याला भर लाती
सुरभित छाया के नीचे
मेरा यौवन पीता सुख से
अलसाई आँखे मींचे।
ले मकरंद नया चू पडती
शरद-प्रात की शेफाली,
बिखराती सुख ही, संध्या की
सुंदर अलकें घुँघराली।
सहसा अधंकार की आँधी
उठी क्षितिज से वेग भरी,
हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी
उद्वेलित मानस लहरी।
व्यथित हृदय उस नीले नभ में
छाया पथ-सा खुला तभी,
अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति
कर दी तुमने देवि जभी।
दिव्य तुम्हारी अमर अमिट
छवि लगी खेलने रंग-रली,
नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-
निकष पर खिंची भली।
अरुणाचल मन मंदिर की वह
मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,
गी सिखाने स्नेह-मयी सी
सुंदरता की मृदु महिमा।
उस दिन तो हम जान सके थे
सुंदर किसको हैं कहते
तब पहचान सके, किसके हित
प्राणी यह दुख-सुख सहते।
जीवन कहता यौवन से
"कुछ देखा तूने मतवाले"
यौवन कहता साँस लिये
चल कुछ अपना संबल पाले"
हृदय बन रहा था सीपी सा
तुम स्वाती की बूँद बनी,
मानस-शतदल झूम उठा
जब तुम उसमें मकरंद बनीं।
तुमने इस सूखे पतझड में
भर दी हरियाली कितनी,
मैंने समझा मादकता है
तृप्ति बन गयी वह इतनी
विश्व, कि जिसमें दुख की
आँधी पीडा की लहरी उठती,
जिसमें जीवन मरण बना था
बुदबुद की माया नचती।
वही शांत उज्जवल मंगल सा
दिखता था विश्वास भरा,
वर्षा के कदंब कानन सा
सृष्टि-विभव हो उठा हरा।
'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''