"भिखारी / विजय कुमार पंत" के अवतरणों में अंतर
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फटाक !!!! | फटाक !!!! | ||
गुब्बारे के फूटते ही | गुब्बारे के फूटते ही | ||
− | ताली बजा | + | ताली बजा-बजा कर |
खुश होता है टिंकू | खुश होता है टिंकू | ||
− | और मुँह | + | और मुँह नीचे किये |
− | दुखी एक | + | दुखी एक गरीब इंसान |
− | जिसको हो गया एक | + | जिसको हो गया एक रुपए का नुकसान |
ये भी क्या माया है | ये भी क्या माया है | ||
− | + | ऊपरवाले ने क्या खेल बनाया है | |
− | एक | + | एक ही घटना से कुछ लोग |
बहुत खुश होते हैं | बहुत खुश होते हैं | ||
− | कुछ | + | कुछ ज़ार-ज़ार रोते हैं |
और ये ज़रूरी भी नहीं | और ये ज़रूरी भी नहीं | ||
− | + | कि केवल गलत चीज़ें | |
ही दुःख देती हैं | ही दुःख देती हैं | ||
− | कभी - कभी , ख़ुशी भी | + | कभी-कभी , ख़ुशी भी |
− | जान | + | जान ले लेती है |
तुम को देखते ही | तुम को देखते ही | ||
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आज जलता हूँ | आज जलता हूँ | ||
उपले जैसा | उपले जैसा | ||
− | धीरे | + | धीरे-धीरे |
− | + | धुआँ | |
बनता हुआ | बनता हुआ | ||
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जिसने मुझे अपने आप से | जिसने मुझे अपने आप से | ||
भी अलग कर दिया था | भी अलग कर दिया था | ||
− | इस तरह | + | इस तरह तड़पाएगी |
जो कभी जीवन का श्रेष्ठ वरदान थी | जो कभी जीवन का श्रेष्ठ वरदान थी | ||
अभिशाप बन जाएगी | अभिशाप बन जाएगी | ||
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मुझे लगता है | मुझे लगता है | ||
तुमसे खिंचा चला आता है | तुमसे खिंचा चला आता है | ||
− | वो भिखारी भी रोज़ | + | वो भिखारी भी रोज़ -रोज़ आता है |
− | तुम्हारी दुत्कार सुनकर | + | तुम्हारी दुत्कार सुनकर चला जाता है |
फिर भी रोज़ -रोज़ आता है | फिर भी रोज़ -रोज़ आता है | ||
तुम क्या जानो | तुम क्या जानो | ||
पंक्ति 60: | पंक्ति 60: | ||
जिससे सारी दुनिया सुख पाती है | जिससे सारी दुनिया सुख पाती है | ||
वो सुन्दरता तुम्हारी मुझे | वो सुन्दरता तुम्हारी मुझे | ||
− | पल -पल | + | पल -पल जलाती है |
− | अक्सर तुम्हारे साथ चलते | + | अक्सर तुम्हारे साथ चलते -चलते |
देखता हूँ | देखता हूँ | ||
कितनी आँखों की तड़प भरी | कितनी आँखों की तड़प भरी | ||
पंक्ति 77: | पंक्ति 77: | ||
इस तरह | इस तरह | ||
बार -बार आहत न होता | बार -बार आहत न होता | ||
− | अलग | + | अलग -अलग रिश्तों में |
लिपटे अनगिनत भिखारियों से | लिपटे अनगिनत भिखारियों से | ||
जो आज भी जूझ रहे है | जो आज भी जूझ रहे है | ||
तुम्हारी सुन्दरता की बीमारी से .... | तुम्हारी सुन्दरता की बीमारी से .... | ||
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19:49, 30 मई 2010 के समय का अवतरण
फटाक !!!!
गुब्बारे के फूटते ही
ताली बजा-बजा कर
खुश होता है टिंकू
और मुँह नीचे किये
दुखी एक गरीब इंसान
जिसको हो गया एक रुपए का नुकसान
ये भी क्या माया है
ऊपरवाले ने क्या खेल बनाया है
एक ही घटना से कुछ लोग
बहुत खुश होते हैं
कुछ ज़ार-ज़ार रोते हैं
और ये ज़रूरी भी नहीं
कि केवल गलत चीज़ें
ही दुःख देती हैं
कभी-कभी , ख़ुशी भी
जान ले लेती है
तुम को देखते ही
मैं कभी
खिल उठता था
सूरजमुखी की तरह
आज जलता हूँ
उपले जैसा
धीरे-धीरे
धुआँ
बनता हुआ
कभी सोचा नहीं था
तुम्हारी ये
सुन्दरता
जिसने मुझे अपने आप से
भी अलग कर दिया था
इस तरह तड़पाएगी
जो कभी जीवन का श्रेष्ठ वरदान थी
अभिशाप बन जाएगी
हर वो इन्सान
जो मेरे करीब आता है
मुझे लगता है
तुमसे खिंचा चला आता है
वो भिखारी भी रोज़ -रोज़ आता है
तुम्हारी दुत्कार सुनकर चला जाता है
फिर भी रोज़ -रोज़ आता है
तुम क्या जानो
उसका वो दांत निकाल कर हँसते हुए तुमको घूरना
मुझे कितना जलाता है
एक सुंदर चीज़
जो मुझे छोड़ सबको ख़ुशी देती है
मेरे चेहरे की रंगत बदल देती है
जिससे सारी दुनिया सुख पाती है
वो सुन्दरता तुम्हारी मुझे
पल -पल जलाती है
अक्सर तुम्हारे साथ चलते -चलते
देखता हूँ
कितनी आँखों की तड़प भरी
याचना
जो मुझमें दया का भाव ले आती है
अपने लिए
तब सोचता हूँ
काश तुम अगर मेरी जीवन संगिनी
के सिवा कुछ भी और होती ,
तो इन भद्र याचकों को
तुमको कब का दान कर देता
इस तरह
बार -बार आहत न होता
अलग -अलग रिश्तों में
लिपटे अनगिनत भिखारियों से
जो आज भी जूझ रहे है
तुम्हारी सुन्दरता की बीमारी से ....