"किसी को दे के दिल कोई नवासंजे-फ़ुग़ाँ क्यों हो / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) छो |
||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=ग़ालिब | |रचनाकार=ग़ालिब | ||
+ | |संग्रह= दीवाने-ग़ालिब / ग़ालिब | ||
}} | }} | ||
[[Category:ग़ज़ल]] | [[Category:ग़ज़ल]] | ||
+ | <poem> | ||
+ | किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फ़ुग़ाँ क्यों हो | ||
+ | न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़ुबाँ क्यों हो | ||
− | + | वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़ा क्यों बदलें | |
− | + | सुबुकसार बनके क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यों हो | |
− | वो | + | किया ग़मख़्वार ने रुसवा लगे आग इस मुहब्बत को |
− | + | न लाये ताब जो ग़म की वो मेरा राज़दाँ क्यों हो | |
− | + | वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा | |
− | + | तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो | |
− | + | क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम | |
− | + | गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यों हो | |
− | + | ये कह सकते हो हम दिल में नहीं हैं पर ये बताओ | |
− | + | कि जब दिल में तुम्हीं तुम हो तो आँखों से निहाँ क्यों हो | |
− | + | ग़लत है जज़बा-ए-दिल का शिकवा देखो जुर्म किसका है | |
− | + | न खींचो गर तुम अपने को कशाकश दर्मियाँ क्यों हो | |
− | + | ये फ़ितना आदमी की ख़ानावीरानी को क्या कम है | |
− | + | हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आस्माँ क्यों हो | |
− | + | यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं | |
− | + | अदू के हो लिये जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो | |
− | + | कहा तुमने कि क्यों हो ग़ैर के मिलने में रुसवाई | |
− | + | बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहियो कि हाँ क्यों हो | |
− | + | निकाला चाहता है काम क्या तानों से तू "ग़ालिब" | |
− | + | तेरे बेमहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यों हो | |
− | + | </poem> | |
− | निकाला चाहता है काम क्या तानों से तू "ग़ालिब" | + | |
− | तेरे बेमहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यों हो < | + |
16:33, 1 जून 2010 के समय का अवतरण
किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फ़ुग़ाँ क्यों हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़ुबाँ क्यों हो
वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़ा क्यों बदलें
सुबुकसार बनके क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यों हो
किया ग़मख़्वार ने रुसवा लगे आग इस मुहब्बत को
न लाये ताब जो ग़म की वो मेरा राज़दाँ क्यों हो
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो
क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम
गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यों हो
ये कह सकते हो हम दिल में नहीं हैं पर ये बताओ
कि जब दिल में तुम्हीं तुम हो तो आँखों से निहाँ क्यों हो
ग़लत है जज़बा-ए-दिल का शिकवा देखो जुर्म किसका है
न खींचो गर तुम अपने को कशाकश दर्मियाँ क्यों हो
ये फ़ितना आदमी की ख़ानावीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आस्माँ क्यों हो
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
अदू के हो लिये जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो
कहा तुमने कि क्यों हो ग़ैर के मिलने में रुसवाई
बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहियो कि हाँ क्यों हो
निकाला चाहता है काम क्या तानों से तू "ग़ालिब"
तेरे बेमहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यों हो