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"ऑफ़िस-तंत्र-7 / कुमार अनुपम" के अवतरणों में अंतर

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लौटने के लिए वह घर लौटता है
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यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है  
और साथ में एक ऑफ़िस लाता है
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आप नये हैं न जान जाएँगे यहाँ की कार्य-प्रणाली—
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सर्वग्य भाव से भरे कुछ असमय-बुजुर्ग-युवा
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अपनी गलतियाँ छुपाते हुए ऐसा दोहराते हैं जब तब
  
दरवाज़ा खोलने में हुई ज़रा-सी देरी के लिए
+
जो यहाँ हैं
फटकारता है पत्नी को
+
वे यहीं थे जैसे अनन्तकाल से
माँगता है पूरे दिवस की कार्य-रिपोर्ट
+
सहमी हुई वह
+
गिनाती है रोज़मर्रा गृहस्थी के काम जिसमें जूझती रही सगरदिन
+
वह एक मामूली गृहस्थी के मामूली कामों को
+
उसकी साधारणता समेत खारिज करता है और
+
कुछ असाधारण काम-धाम करने
+
की आदेशनुमा सलाह में लपेट
+
उसकी गृहस्थी की मामूली फाइल
+
हिकारत के हाथों सौंप देता है
+
  
बच्चे
+
जो यहाँ से किसी तरह विदा हुए
दरवाज़े और करुणा की ओट से
+
वे जैसे कभी थे ही नहीं स्मृतियों तक में  
कुछ चाकलेट कुछ टॉफ़ियों की नाउम्मीदी में
+
किसी सपने में लौट जाते हैं
+
या सोने में व्यस्त दिखने
+
के अभिनय में मशगूल हो जाते हैं मन मार
+
उन्हें पता है शायद
+
कि ऑफ़िस में चाकलेट और टाफियाँ नहीं मिलतीं
+
जो दुहराता है अकसर उनका पिता
+
  
वह अधिकारी-आवेश में
+
जो डटे हैं वे ऐसे हैं  
झिंझोड़कर जगाता है बच्चों को अधनींद
+
जैसे यहीं रहेंगे अनन्तकाल तक...।
और धमकाता है कि तुम सबकी मटरगश्तियाँ
+
और लापरवाहियाँ
+
अब और बरदाश्त के नाकाबिल
+
कि अधिक मन लगाओ
+
कि तुम पर, सोचो ज़रा,
+
कितना इन्वेस्ट किया जा रहा है लगातार
+
तुम पर हमारे कई प्लान डिपेंड हैं  
+
और कई योजनाएँ तो तुम्हारे ही कारण स्थगित
+
तुम्हीं हो हमारी उम्मीद की मल्टीनेशनल लौ
+
जिसकी जगरमगर में हमारा भी भविष्य देदीप्यमान
+
 
+
बच्चे फिर भी
+
अपनी कारस्तानियों के स्वप्न में दाख़िल हो जाते हैं
+
 
+
इतने में पत्नी लगा देती है भोजन
+
वह स्वादिष्टï लगते पकवान का छुपा जाता है राज़
+
और निकालता है मीनमेख कि अब
+
पहले-सी बात नहीं रही तुममें न पहले-सा स्वाद
+
जबकि जानता है कि अधिकतम समर्पण से बनाया गया है भोजन
+
 
+
पत्नी कुढ़ती है
+
और किसी आशंका मे
+
अपनी घर-गृहस्थी समेत डूब जाती है
+
वह लगा लगाकर गोते उसे खींच खींच निकालता है बार बार
+
और उससे
+
सहयोग की कामना करता है
+
वह स्वीकारती है अनमने मन से आज का अन्तिम फरमान
+
और ध्वस्त हो जाती है
+
 
+
वह बॉस की तरह मन्द मन्द मुस्कुराता रहता है
+
और किसी विजेता-भाव में बिला जाता है।
+
 
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03:25, 2 जून 2010 के समय का अवतरण

यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है
आप नये हैं न जान जाएँगे यहाँ की कार्य-प्रणाली—
सर्वग्य भाव से भरे कुछ असमय-बुजुर्ग-युवा
अपनी गलतियाँ छुपाते हुए ऐसा दोहराते हैं जब तब

जो यहाँ हैं
वे यहीं थे जैसे अनन्तकाल से

जो यहाँ से किसी तरह विदा हुए
वे जैसे कभी थे ही नहीं स्मृतियों तक में

जो डटे हैं वे ऐसे हैं
जैसे यहीं रहेंगे अनन्तकाल तक...।