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"गोरी सोयी सेज पर / मदन कश्यप" के अवतरणों में अंतर

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12:11, 4 जून 2010 का अवतरण

मैं एक ऐसे टीले पर चक्कर काट रहा हूँ
जिसके नीचे एक सभ्यता ही नहीं एक भाषा भी दफ्न है
मुझे ढूँढने हैं हजारों शब्द
जो कहीं उतनी छोटी-सी जगह में दुबके हैं जितनी-सी जगह
तुम्हारे नाखून और उस पर चढ़ी पालिश के बीच बची होती है

तुम्हारे दुपट्टे को लहराने वाली हवा ने ही
उन नावों के पालों को लहराया था
जिन पर पहली बार लदे थे हड़प्पा के मृदभाँड

इतिहास की अजस्त्र धारा पर अध्यारोपित तुम्हारी हँसी
काल की सहस्त्र भंगिमाओं का मोंताज तुम्हारा चेहरा

सबसे लंबे समयखंड को
अपनी नन्हीं भुजाओं में समेट लेने को आतुर मेरा मन
तुम्हें ढूंढता रहता है अक्षरों से भी पुराने गुफाचित्रों में

मुझे याद आ रहे हैं अमीर खुसरो
सुनो वे तब भी याद आए थे
जब पहली और आखिरी बार मैंने तुम्हारे होंठों को चूमा था
वह एक यात्रा थी एक भय से दूसरे भय में
और इस तरह भय का बदल जाना भी कम भयानक नहीं होता

‘गोरी सोयी सेज पर, मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने, रैन भयी चहुं देस’

छह सौ बहत्तर वर्षों में भी जब तुम्हारे मुख पर से केश हटा नहीं सका
तब जाकर एहसास हुआ कि यह रैन इतनी लंबी है
सुबह तो उस रात की होती है जो सूरज के डूबने से हुई हो

जिसे रच रहे थे अमीर खुसरो
कुछ शब्द गुम हो गए उस भाषा के
और कुछ आततायी व्याकरण की जंग लगी बेड़ियों में कैद हो गए

एकल कोशिकीय अनुजीवों के जगल से गुजरते हुए
मुझे पहुंचना है उस पनघट पर
जहां स्वच्छ जामुनी जल की तरह तरल शब्द कर रहे हैं मेरी प्रतीक्षा

मैं धीरे-धीरे एक विषाल स्पाइरोगाइरा में बदलते जा रहे
इस महादेश के जेहन में अपनी कविता के साथ जाना चाहता हूँ
अंधेरी सुरंगों में सपनों के कुछ गहरे रंग भरना चाहता हूँ

एक शून्य जो पसरता जा रहा है हमारे चारों ओर
मैं उसे पाटना चाहता हूँ
कविता की आँखों में तैर रहे नये छंदों से
00

मैं भाषा के समुद्र का सिंदबाद
अपने पास रखना चाहता हूं केवल यात्राओं की पीड़ा
बाकी सबकुछ तुम्हें दे देना चाहता हूँ
तुम्हें दे देना चाहता हूँ
अपने अच्छे दिनों में संचित सारे शब्द
अपनी बोली की तमाम महाप्राण ध्वनियाँ

मैं चाँद के रैकेट से सारे सितारों को उछाल देना चाहता हूं तुम्हारी ओर!