भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बचे हुए शब्द / मदन कश्यप" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मदन कश्‍यप |संग्रह= नीम रोशनी में / मदन कश्‍यप }} <po…)
(कोई अंतर नहीं)

13:03, 5 जून 2010 का अवतरण

जितने शब्द आ पाते हैं कविता में
उससे कहीं ज्यादा छूट जाते हैं

बचे हुए शब्द छपछप करते रहते हैं
मेरी आत्मा के निकट बह रहे पनसोते में

बचे हुए शब्द
थल को
जल को
हवा को
अगिन को
आकाश को
लगातार करते रहते हैं उद्वेलित

मैं इन्हें फाँसने की कोशिश करता हूँ
तो मुस्कुराकर कहते हैं
तिकड़म से नहीं लिखी जाती कविता
और मुझ पर छींटे उछालकर
चले जाते हैं दूर गहरे जल में

मैं जानता हूँ इन बचे हुए शब्दों में ही
बची रहेगी कविता!