"गोलबंद स्त्रियों की नज़्म / मदन कश्यप" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार = मदन कश्यप | |रचनाकार = मदन कश्यप |
10:13, 6 जून 2010 के समय का अवतरण
कुछ हँसती हैं आँचल से मुँह ढंककर
तो कुछ मुँह खोलकर ठहाके लगाती हैं
गोलबंद होकर स्त्रियाँ
जाने क्या-क्या बतियाती हैं
बात कुएँ से निकलकर
दरिया तक पहुँचती है
और मौजों पर सवारी गाँठ
समंदर तक चली जाती है
समंदर इतना गहरा
कि हिमालय एक कंकड़ की तरह डूब जाए
उसकी ऊँची-ऊँची लहरें
बादलों के आँचल पर जलधार गिराती हैं
वेदना की व्हेल
दुष्टता की सार्क
छुपकर दबोचने वाले रकतपायी आक्टोपस
और भी जाने क्या-क्या गप्प के उस समुद्र में
गमी हो या खुशी
चुपचाप नहीं पचा पाती हैं स्त्रियाँ
मिलकर बतियाती हैं मिलकर गाती हैं
इसीलिए तो इतना दुःख उठा पाती हैं
स्त्रियों ने रची हैं दुनियां की सभी लोककथाएँ
उन्हीं के कण्ठ से फूटे हैं सारे लोकगीत
गुमनाम स्त्रियों ने ही दिए हैं
सितारों को उनके नाम!