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"किताबों मे‍ मेरे फ़साने ढूँढते हैं / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर

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11:39, 6 जून 2010 का अवतरण

किताबों में मेरे फ़साने ढूंढते हैं,

नादां हैं गुज़रे ज़माने ढूंढते हैं ।


जब वो थे तलाशे-ज़िंदगी भी थी,

अब तो मौत के ठिकाने ढूंढते हैं ।


कल ख़ुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था,

आज हुए से दीवाने ढूंढते हैं ।


मुसाफ़िर बे-ख़बर हैं तेरी आंखों से,

तेरे शहर में मैख़ाने ढूंढते हैं ।


तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले,

हम तो रोने के बहाने ढूंढते हैं ।


उनकी आंखों को यूं ना देखो ’फ़राज़’,

नए तीर हैं, निशाने ढूंढते हैं ।