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"सोच / विजय कुमार पंत" के अवतरणों में अंतर

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सोच  / विजय कुमार पंत
 
 
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ढांप -छुपा  कर  रखना  
 
ढांप -छुपा  कर  रखना  
 
ही  सभ्यता  है ??
 
ही  सभ्यता  है ??
या  सोच  मैं ही  
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या  सोच  में ही  
 
असभ्यता  है ??
 
असभ्यता  है ??
  
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होते  
 
होते  
 
होती  है  तो  एक  चमकदार  सोच  
 
होती  है  तो  एक  चमकदार  सोच  
जो  शारीर से  परे  
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जो  शरीर से  परे  
 
आत्मा  में  कहीं  गहरे  
 
आत्मा  में  कहीं  गहरे  
 
घर  बना  लेती  है  
 
घर  बना  लेती  है  

11:01, 7 जून 2010 के समय का अवतरण


कितना विकराल होता है
सोच का दायरा
अक्सर तार -तार होते रहते
हैं उसमें
बड़े एहतियात से पहने
कपड़े
तुम कहते हो नग्नता
पाप है ,
मैं कहता हूँ
एक विकृत दिमाग का
अभिशाप है

क्या शारीर को
ढांप -छुपा कर रखना
ही सभ्यता है ??
या सोच में ही
असभ्यता है ??

ज़ुलू लोग असभ्य नहीं
होते
उनके पास वस्त्र भी नहीं
होते
होती है तो एक चमकदार सोच
जो शरीर से परे
आत्मा में कहीं गहरे
घर बना लेती है
इसलिए उनको फालतू की
शर्मिंदगी नहीं होती..