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"स्विटजरलैण्ड : लौटे यात्री का भावचित्र / कर्णसिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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बिछी बर्फ़ के चंदन तन की
 
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लहक उठा यह
 
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नीला सरवर
 
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अंग-अंग के पोर-पोर  की
 
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पीड़ा में हँसते  देखा है ।
 
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जाग उठा  
 
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देश के वैभव को
 
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युंग फ्राड  ने
 
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आसमान में
 
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भूतल पर फलते देखा है ।
 
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00:20, 8 जून 2010 का अवतरण

जीवन के मंगल रागों को
मानव में ढलते देखा है।
स्वप्नों को साकार धरा पर
रंगों में चलते देखा है ।

ऊषा के संग
उठकर सड़कें
स्नान कर रहीं
केश संवारे
हरित वनश्री
प्राणों में नव
गंध भर रही
अलस्सवेरे
सूरज की मद्धिम किरणों में
बिछी बर्फ़ के चंदन तन की
नदियों में गलते देखा है ।
जीवन के मंगल रागों की
मानव में ढलते देखा है ।
लहक उठा यह
नीला सरवर
नभ दर्पण में
उचक-उचक कर
धज निहारता
क्रिसमस तरवर
अंबर के आलिंगन की इस
सराबोर जकड़न से छूटकर
मुक्त हुई मदहोश तरुणी को
अंग-अंग के पोर-पोर की
पीड़ा में हँसते देखा है ।
स्वप्नों को साकार धरा पर
रंगों में चलते देखा है ।
जाग उठा
अनुशासित यौवन
जाग उठा है
इंद्रलोक का सारा जीवन
खलिहानों की मांग पूरना
भवनों को महकाता
हाथों-पैरों की हरकत से
हँसी-हँसी और प्रेमभाव से
जनकोषों का
व्यास बढ़ाता
सड़कें गूँजी
आँगन गूँजे
घड़ियों के
कलखाने गूँजे
कनक भरे स्विस बैंकों के
तहखाने गूँजे
राग-द्वेष मारा-मारी के
बिना
देश के वैभव को
पलते देखा है ।
जीवन के मंगल रागों को
मानव में ढलते देखा है ।
युंग फ्राड ने
आसमान में
किया उजाला
चौराहों पर
आन गाँव से
रंग-बिरंगे
वस्त्रों, वाद्यों में सजधज कर
गायक आए
सतरंगी प्रकाश के प्रांगण
भरी भीड़ के
आगोशों में
थिरकी पैरों की
रागिनियाँ
हर संध्या उत्सव बसंत का
हर शहरी उल्लसित ओज में
गाता मदमाता
अपने सुख के
निस्सीम समय में
धरती का अहसास मिटाता
रजनी के सुन्दर नयनों में
जगती की अभिलाषा के
निष्फल सपनों को
भूतल पर फलते देखा है ।
जीवन के मंगल रागों को
मानव में ढलते देखा है
स्वप्नों को साकार धरा पर
रंगों में चलते देखा है ।