{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत; पल्लविनी / सुमित्रानंदन पंत
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<poem>
:शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
:अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
:लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,
:लहरे उर पर कोमल कुंतल।
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
:चंचल अंचल-सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,
:सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर।
शांत स्निग्ध:चाँदनी रात का प्रथम प्रहर, ज्योत्सना धवल!<br>अपलक अनंत:हम चले नाव लेकर सत्वर। सिकता की सस्मित-सीपी पर, नीरव भूतल!<br><br>मोती की ज्योत्स्ना रही विचर, :लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर। मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर :तिर रही, खोल पालों के पर। निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर :दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर। कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन, :पलकों में वैभव-स्वप्न सघन।
सैकत शय्या पर दुग्ध:नौका से उठतीं जल-धवलहिलोर,<br> तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म:हिल पड़ते नभ के ओर-विरल<br>छोर। लेटी है श्रान्त, क्लान्त, विस्फारित नयनों से निश्चल!<br>तापस बाला गंगा, निर्मल, <br>कुछ खोज रहे चल तारक दल शशि-मुख में दीपित मृदु करतल<br>लहरे उर पर कोमल कुंतल!<br>गोरे अंगों पर सिहर-सिहर:ज्योतित कर नभ का अंतस्तल, <br>लहराता तार तरल सुन्दर<br>जिनके लघु दीपों को चंचल , अंचल सा नीलांबर!<br>की ओट किये अविरल :फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल।साड़ी सामने शुक्र की सिकुड़नछवि झलमल, पैरती परी-सी जिस परजल में कल,<br>शशि की रेशमी विभा :रुपहरे कचों में ही ओझल।लहरों के घूँघट से भर<br>झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख सिमटी है वर्तुल:दिखलाता, मृदुल लहर!<br><br>मुग्धा-सा रुक-रुक।
:अब पहुँची चपला बीच धार, :छिप गया चाँदनी रात का प्रथम प्रहर<br>कगार।हम चले नाव लेकर सत्वर!<br>सिकता की सस्मित सीपी परदो बाहों-से दूरस्थ-तीर, <br>धारा का कृश कोमल शरीर मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,<br>:आलिंगन करने को अधीर। लो पाले चढ़ीअति दूर, उठा लंगर!<br>मृदु मंदक्षितिज पर विटप-मंद मंथरमाल, लगती भ्रू-मंथररेखा-सी अराल, <br>लघु तरणि हंसिनी सी सुन्दर<br>:अपलक-नभ नील-नयन विशाल; तिर रही खोल पालों मा के उर पर!<br>निश्चल जल ले शुचि दर्पण परशिशु-सा,<br>बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर<br>दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर!<br>कालाकाँकर का राजभवनसमीप, <br>सोया जल धारा में निश्चित प्रमन<br>एक द्वीप, पलकों पर वैभव स्वप्न:ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप; वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता, हरने का निज विरह-सघन!<br><br>शोक? :छाया की कोकी को विलोक?
:पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार,
:नौका घूमी विपरीत-धार।
ड़ाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार,
:बिखराती जल में तार-हार।
चाँदी के साँपों-सी रलमल, नाँचतीं रश्मियाँ जल में चल
:रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल।
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
:फैले फूले जल में फेनिल।
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह
:हम बढ़े घाट को सहोत्साह।
नौका में उठती जल-हिलोर,<br>हिल पड़ते नभ के ओर-छोर!<br>विस्फारित नयनों से निश्चल, <br>कुछ खोज रहे चल तारक दल<br>ज्योतित कर नभ का अंतस्तल!<br>जिनके लघु दीपों का चंचल, <br>अंचल की ओट किये अविरल<br>फिरती लहरें लुक-छिप पल-पल!<br>सामने शुक्र की छवि झलमल, <br>पैरती परी-सी जल में कल<br>रूपहले कचों में ही ओझल!<br>लहरों के घूँघट से झुक-झुक, <br>दशमी की शशि निज तिर्यक् मुख<br>दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक!<br><br> अब पहुँची चपला बीच धार,<br>छिप गया चाँदनी का कगार!<br>दो बाहों से दूरस्थ तीर <br>धारा का कृश कोमल शरीर<br>आलिंगन करने को अधीर!vअति दूर, क्षितिज पर <br>विटप-माल लगती भ्रू-रेखा अराल,<br>अपलक-नभ नील-नयन विशाल,<br>माँ के उर पर शिशु-सा, समीप, <br>सोया धारा में एक द्वीप,<br>ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,<br>वह कौन विहग? क्या विकल कोक,<br>उड़ता हरने का निज विरह शोक?<br>छाया की कोकी को विलोक?<br><br> पतवार घुमा, अब प्रतनु भार,<br>नौका घूमी विपरीत धार!<br>ड़ाड़ो के चल करतल पसार, <br>भर-भर मुक्ताफल फेन स्फार,<br>बिखराती जल में तार-हार!<br>चाँदी के साँपो की रलमल, <br>नाचती रश्मियाँ जल में चल<br>रेखाओं की खिच तरल-सरल!<br>लहरों की लतिकाओं में खिल, <br>सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल<br>फैले फूले जल में फेनिल!<br>अब उथला सरिता का प्रवाह; <br>लग्गी से ले-ले सहज थाह<br>हम बढ़े घाट को सहोत्साह!<br><br> :ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार,<br>:उर में आलोकित शत विचार!<br>विचार।इस धारा-सी सा ही जग का क्रम, <br>शाश्वत इस जीवन की का उद्गम<br>,:शाश्वत है गति, शाश्वत संगम।शाश्वत नभ का नीला-विकास, शाश्वत शशि का यह रजत-हास,:शाश्वत लघु -लहरों का विलास!<br>विलास। हे नव जग-जीवन के कर्णधार! <br>चीर चिर जन्म-मरण के आर-पार,<br>:शाश्वत जीवन-नौका विहार!<br>-विहार।मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान, <br>जीवन का यह शाश्वत प्रमाण<br>:करता मुझको अमरत्व दान!-दान।<br/poem>