"बेखु़दी आ गई लेकर कहाँ ऐ यार मुझे ? / सरवर आलम राज 'सरवर'" के अवतरणों में अंतर
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उसको शमशीर मिली ,जुर्रत-ए-इज़हार मुझे | उसको शमशीर मिली ,जुर्रत-ए-इज़हार मुझे | ||
− | तेरी महफ़िल की फ़ुसूँ-साज़ियाँ अल्लाह!अल्लाह ! | + | तेरी महफ़िल की फ़ुसूँ-साज़ियाँ<ref>जादू/मायाजाल</ref> अल्लाह!अल्लाह ! |
− | खेंच कर ले गई फिर लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे | + | खेंच कर ले गई फिर लज़्ज़त-ए-आज़ार<ref>तकलीफ़ के मज़े</ref> मुझे |
सुब्ह-ए-उम्मीद है आइना-ए-शाम-ए-हसरत | सुब्ह-ए-उम्मीद है आइना-ए-शाम-ए-हसरत | ||
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अल-अमान अल-हफ़ीज़ अपनों की करम-फ़र्मायी | अल-अमान अल-हफ़ीज़ अपनों की करम-फ़र्मायी | ||
− | बन गई राहत-ए-जां तोहमत-ए-अग़्यार मुझे | + | बन गई राहत-ए-जां तोहमत-ए-अग़्यार<ref>दुश्मनों के आरोप</ref> मुझे |
एक तस्वीर के दो रुख़ हैं ब-फ़ैज़-ए-ईमान | एक तस्वीर के दो रुख़ हैं ब-फ़ैज़-ए-ईमान | ||
− | तवाफ़-ए-क़ाबा हो कि वो हल्क़-ए-ज़ुन्नार मुझे | + | तवाफ़-ए-क़ाबा<ref>काबा की परिक्रमा</ref> हो कि वो हल्क़-ए-ज़ुन्नार मुझे |
मैं ज़माने से ख़फ़ा ,दुनिया है मुझ से नालां | मैं ज़माने से ख़फ़ा ,दुनिया है मुझ से नालां | ||
इम्तिहां हो गई ये फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार मुझे | इम्तिहां हो गई ये फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार मुझे | ||
− | साग़र-ए-मय ना सही दुर्द-ए-तहे-जाम सही | + | साग़र-ए-मय ना सही दुर्द-ए-तहे-जाम<ref>तलछट में बची शराब</ref> सही |
तिश्ना लब यूँ तो न रख साक़ी-ए-ख़ुश्कार मुझे! | तिश्ना लब यूँ तो न रख साक़ी-ए-ख़ुश्कार मुझे! | ||
मंज़िल-ए-दर्द में वो गुज़री है मुझ पर ’सरवर’ | मंज़िल-ए-दर्द में वो गुज़री है मुझ पर ’सरवर’ | ||
− | अब कोई मरहला लगता नहीं दुश्वार मुझे | + | अब कोई मरहला<ref>मंज़िल</ref> लगता नहीं दुश्वार मुझे |
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12:07, 10 जून 2010 के समय का अवतरण
बेखु़दी आ गई लेकर कहाँ ऐ यार मुझे ?
कर गई अपनी हक़ीक़त से ख़बरदार मुझे
ख़ूब कटती है जो मिल बैठे हैं दीवाने दो
उसको शमशीर मिली ,जुर्रत-ए-इज़हार मुझे
तेरी महफ़िल की फ़ुसूँ-साज़ियाँ<ref>जादू/मायाजाल</ref> अल्लाह!अल्लाह !
खेंच कर ले गई फिर लज़्ज़त-ए-आज़ार<ref>तकलीफ़ के मज़े</ref> मुझे
सुब्ह-ए-उम्मीद है आइना-ए-शाम-ए-हसरत
आह अच्छे नज़र आते नहीं आसार मुझे !
मैं दिल-ओ-जान से इस हुस्न-ए-अता के क़ुर्बान
जल्वा-ए-हुस्न उसे ,हसरत-ए-दीदार मुझे
अल-अमान अल-हफ़ीज़ अपनों की करम-फ़र्मायी
बन गई राहत-ए-जां तोहमत-ए-अग़्यार<ref>दुश्मनों के आरोप</ref> मुझे
एक तस्वीर के दो रुख़ हैं ब-फ़ैज़-ए-ईमान
तवाफ़-ए-क़ाबा<ref>काबा की परिक्रमा</ref> हो कि वो हल्क़-ए-ज़ुन्नार मुझे
मैं ज़माने से ख़फ़ा ,दुनिया है मुझ से नालां
इम्तिहां हो गई ये फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार मुझे
साग़र-ए-मय ना सही दुर्द-ए-तहे-जाम<ref>तलछट में बची शराब</ref> सही
तिश्ना लब यूँ तो न रख साक़ी-ए-ख़ुश्कार मुझे!
मंज़िल-ए-दर्द में वो गुज़री है मुझ पर ’सरवर’
अब कोई मरहला<ref>मंज़िल</ref> लगता नहीं दुश्वार मुझे