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11:36, 11 जून 2010 के समय का अवतरण
जैसे जैसे हम बड़े होते गए,
झूठ कहने मे खरे होते गए ।
चाँद बाबा गिल्ली डंडा इमलियाँ,
सब किताबों के सफ़े होते गए ।
अब तलक तो दूसरा कोई न था,
रफ़्ता रफ़्ता तीसरे होते गए ।
एक बित्ता क़द हमारा क्या बढ़ा,
हम अकारण ही बुरे होते गए ।
जंगलों में बागबां कोई नहीं,
इसलिए पौधे हरे होते गए ।