भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जिस जुबाँ पर चढ़ गयी अधिकार की भाषा / जहीर कुरैशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
छो |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
पत्रिकाओं के जगत में चल नहीं पाती | पत्रिकाओं के जगत में चल नहीं पाती | ||
− | खास | + | खास लहजे में बँधी अखबार की भाषा |
− | इन | + | इन प्रजातन्त्रीय राजाओं की चौखट पर |
− | + | फूलती -फलती रही दरबार की भाषा | |
ये महानगरीय जीवन का करिश्मा है | ये महानगरीय जीवन का करिश्मा है |
12:33, 11 जून 2010 के समय का अवतरण
जिस जुबाँ पर चढ़ गई अधिकार की भाषा
उसको फिर आती नहीं है प्यार की भाषा
पत्रिकाओं के जगत में चल नहीं पाती
खास लहजे में बँधी अखबार की भाषा
इन प्रजातन्त्रीय राजाओं की चौखट पर
फूलती -फलती रही दरबार की भाषा
ये महानगरीय जीवन का करिश्मा है
भूल बैठे हम सुखी परिवार की भाषा
मोम की गुड़िया समझ लेती है छुअनों से
साथ में लेटे हुए अंगार की भाषा
इनकी बातों में विरोधी दल का का लहजा है
और उनके पास है सरकार की भाषा
सभ्यता के कौन से युग में खड़े हैं हम
बोलते हैं युद्ध के बाज़ार की भाषा.