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23:57, 11 जून 2010 के समय का अवतरण
इधर-उधर
बिखरी
अनगिनत ठीकरियाँ
बड़े-बड़े मटके
ढकणी
स्पर्शहीन नहीं है।
मिट्टी
ओसन-पकाई होगी
दो-दो हाथों से।
जल भर
ढका होगा मटका
हर घर में
किन्हीं हाथों ने
सकोरा भरकर जल से
मिटाई होगी प्यास
अपनी और आगंतुक की
कालीबंगा का थेहड़
आज भी समेटे हैं स्मृतियाँ
छाती पर लिए
अनगिनत ठीकरियाँ।
राजस्थानी से अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा