भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"खुद से ही बाजी लगी है / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
वीनस केशरी (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गौतम राजरिशी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> खुद से ही बाजी ल…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
01:25, 13 जून 2010 का अवतरण
खुद से ही बाजी लगी है
हाय कैसी जिंदगी है
जब रिवाजें तोड़ता हूँ
घेरे क्यों बेचारगी है
करवटों में बीती रातें
इश्क ने दी पेशगी है
रोया जब तन्हा वो तकिया
रात भर चादर जगी है
अर्थ शब्दों का जो समझो
दोस्ती माने ठगी है
दर-ब-दर भटके हवा क्यूं
मौसमे-आवारगी है
कत्ल कर के मुस्कुराये
क्या कहें क्या सादगी है